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________________ ३८५ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कथा का निर्माण किया था। पर कुछ समय बाद वे मुनि हो गए थे। वे मथुरा के पास यमुना नदी के तट पर बसे हा महावन में रहते थे। मूनि विनयचन्द्र भी वहा के जिन भवन में रहते थ। मूनि विनयचन्द्र ने महावन नगर न्दिर म 'नरग उतारा राम का रचना का था। उसे स्वग बतलाया है जिसग वह अत्यन्त सुन्दर होगा। जैसा कि उसके निम्न पद्य मे प्रकट है : अमिय सरीसउ जवरण जलु, णयरु महावण सग्गु । हि जिण भवणि वसंतइण, विरइउ रासु समग्गु ॥ मनि विनयचन्द्र अच्छे विद्वान पार वि थे। उनकी एक रचना का स्थल उक्त महावन था पोर दूसरी दो रचनायो का-णिज्झरपचमी कहा (गम) पार चनडी गस का-रचना स्थल तिहवण गिरि की तलहटी, ओर अजयपाल नरेन्द्र का विहार था। __ कवि की इस समय पाच रचनाए उपलब्ध है। णिज्झर पचमी कहा (राम) नरग उतारी गस, चूनडी रास, कल्याणक रास और निर्दु ग्ख सप्तमी क्था। रिपज्झरपचमी कहारास-दस गम मे कवि ने निर्भरपचमी व्रत का स्वरूप और उसके पालन का निर्देश किया है और बतलाया है कि अपाढ शुक्ला पचमा दिन जागरण करे, पार उपवास कर, तथा कार्तिक के महीने मे उसका उद्यापन करे । अथवा श्रावण माम म प्रारम्भ करक अगहन महीन में उद्यापन करे । उद्यापन मे छत्र चामरादि पाच-पाच वस्तुएँ मन्दिर जी में प्रदान कर। यदि उद्यापन की शक्ति न हा तो व्रत दुगुने दिन करे, जैसा कि उसके निम्न पद्य मे प्रकट है : धवल पक्खि प्रासादांह पचमि जागरण, सह उपवासइ विज्जइ कातिक उज्जवणू । अह सावण पार भय पुज्जइ पागहणे, इय मइ णिज्झर पचमि अक्खिय भय हरणे ॥ कवि ने इस राम की रचना तिहयणगिरि की तलहटी मे बनाकर समाप्त की हे यथा तिहयण गिरि हट्टी इह रासह रयउ।। माथुरसंघह मुणिवर विणयदि कहिउ ॥ दूसरी रचना 'नरग उतारी राम' है जिसे कवि ने यमुना नदी के किनारे बसे हा महावन (नगर) के जिनमन्दिर मे रहते हुए की थी। तीसरी रचना 'चूनड़ी रास' है । इस राम म ३२ पद्य है। जिसम चनडा नामक उत्तरीय वस्त्र को रूपक बनाकर एक गीति काव्य के रूप में रचना की गई है। कोई मुग्धा युवती हमती हुई अपने पति म कहती है कि भग जिन मन्दिर जाइये और मेरे ऊपर दया करते हुए एक अनुपम चनडा शीघ्र छपवा दीजिए, जिसम म जिनशासन म विचक्षण हो जाऊ । वह यह भी कहती है कि माप वैसी चूनडी छपवा कर नही दगे, ता वह छपा मुझ तानाकशा करेगा। पति पत्नी की बात सुनकर कहता हे कि हे मुग्धे । वह छीपा मुझे जेनसिद्धान्त के रहस्य से परिपूर्ण एक सुन्दर चूनड़ी छापकर देने को कहता है ।। "चूनड़ी उत्तरीय वस्त्र है, जिसे राजस्थान की महिलाएँ विशेष रूप से प्रोढती थी। कवि ने भी इसे रूपक बतलाते हुए चुनड़ी रास का निर्माण किया है। जो वस्तु तत्त्व के विविध वाग्-भूपण रूप प्राभूषणा मे भूपित है, और जिसके अध्ययन से जैन सिद्धान्त के मार्मिक रहस्यो का उद्घाटन होता है । वैसे ही वह शरीर का अलकृत करती हई शरीर की अद्वितीय शोभा को बनाती है। उससे शरीर को अलकृत करती हुई वालाएं लोक म प्रतिष्ठा को प्राप्त होगी और अपने कण्ठ को भूषित करने के साथ-साथ भेद-विज्ञान को प्राप्त करने में समर्थ हो सकेगी। रचना सरस और चित्ताकर्षक है । इस पर कवि की एक विस्तृत स्वोपज्ञ टीका भी उपलब्ध है, जिमम चूनड़ो गस मे दिए सैद्धान्तिक शब्दो के रहस्य को उद्घाटित किया गया है । ऐसी सुन्दर रचना को स्वोपज्ञ सस्कृत टीका के साथ प्रकाशित करना चाहिए।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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