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________________ ३८६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ १३ वीं संधि में भी संयम का उपदेश दिया गया है । मौर गृहस्थों के पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों का कथन करते हुए रात्रि भोजन त्याग पर जोर दिया है। और अन्त में समाधिमरण का उपदेश है। उसके साथ ही सन्धि समाप्त हो जाती है। अन्तिम १४ वी सन्धि में दान और तप कर्म का उपदेश दिया गया है। दान की महत्ता का भी कथन किया है और उसका फल भोगभूमि का मुख बतलाया है। दान को दुर्मति नाशक और सब कल्याणों का कर्ता बतलाया है। उत्कृष्ट पात्र दान का फल उत्कृष्ट कहा है। ग्रन्थ अभी अप्रकाशित है, उसका प्रकाशन होना चाहिए। श्री चन्द्रकीति यह काप्ठा मंघान्तर्गत माथुरसंघ के विद्वान श्रीषेणसूरि के दीक्षित शिष्य थे। जो तपरूपी लक्ष्मी के निवास और अर्थिजन समूह की आशा को पूरी करने वाले, तथा परवादिरूपी हाथियों के लिए मृगेन्द्र थे। इनके शिष्य अमरकीति थे। जिनकी दो रचनाएँ नेमिपुराण (१२४४) और पट्कर्मोपदेश (१२४७) उपलब्ध हैं। श्रीचन्द्रकीर्ति का समय विक्रम की १३ वीं शताब्दी का पूर्वार्ध है । अर्थात् वे सं० १२२० से १२३५ के विद्वान होने चाहिए। कवि अग्गल अग्गल मूलमंध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान श्रुतकीर्ति विद्यदेव का शिष्य था। इसके पिता का नाम शान्तीश और माता का नाम पोचाम्बिका था। कवि का जन्म इगलेश्वर नाम के ग्राम में हआ था। यह संभवतः किसी राज परिवार का प्रसिद्ध कवि था। जैन जैन मनोहर चरित, कवि कुल कलभ-बातय थाधिनाथ, काव्य-कर्णधार, भारती-बालनेत्र, साहित्यविद्याविनोद, जिन समयसार केलि मराल और सुललित कविता नर्तकी नृत्य-रंग आदि इनके विरूद थे। इस कवि की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभ पूराण है, जिसमें पाठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन परिचय अंकित किया गया है । मद्रास लायब्रेरी में विलगी नाम के स्थान का शिलालेख है । उससे ज्ञात होता है कि इसने उक्त ग्रन्थ अपने गुरु श्रुतकीति त्रैविद्य की प्राज्ञा मे बनाया था। ग्रन्थ में १६ पाश्वास हैं। ग्रन्थ की भाषा प्रौढ़ और - संस्कृत बहल है। ग्रन्थ के प्रत्येक प्राश्वास के अन्त में निम्न पूष्पिका वाक्य पाये जाते हैं-'इति परमपरुष नाथकृत भभत्समद्धत प्रवचनसरित्सरिन्नाथ-श्रतकोति विद्य चक्रवर्ती पदपद्मविधान दीपर्वात श्रीमदग्गलदेव विरचिते चन्द्रप्रभ चरिते-दिया है । ग्रन्थ की रचना शक सं० १०११ (वि० सं० ११४६) सन् १०८६ में की गई है । अतः कवि का समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है। कवि श्रीधर कवि विबुध श्रीधर ने अपनी रचना में अपना कोई परिचय और गुरु परम्परा का उल्लेख नही किया। किन्तु इतनी मात्र सूचना दी है कि बलडइ ग्राम के जिन मन्दिर में पोमसेण (पद्ममेन) नाम के मूनि अनेक शास्त्रों का व्याख्यान करते थे। कवि का समय विक्रम की १३वीं शताब्दी का प्रारम्भ है। प्रन्थ रचना ___ कवि की रचना 'सुकमाल चरिउ' है, जिसमें छह सन्धियां और २२४ कडवक हैं, जिनमें सुकुमाल स्वामी का जीवन-परिचय दिया हुआ है। सुकूमाल स्वामी का जीवन अत्यन्त पावन रहा है। इसी से सस्कृत अपभ्रश पौर हिन्दी भाषा में लिखे गए अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। प्रस्तुत चरित में कवि ने सुकुमाल के पूर्व जन्म का वृत्तान्त १. पुणु दिक्विउ तहो तवसिरि-रिणवासु, अत्थियण-संघ-बुहपूरियासु । परवाइ-कुंभि-दारण-मइंदु, मिरिचन्दकित्ति जायउ मुरिणदु। -षट् कर्मोपदेश प्रशस्ति
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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