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________________ ३८४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ के उपान्त्य समय में अर्थात् सन् १९७२ में हुआ है। इसमे जयसेन का समय विक्रम की १३ वीं सदी का प्रारम्भ ठीक जयसेन ने प्रशस्ति में त्रिभवनचन्द्र नाम के गुरु को नमस्कार किया है जो कामदेव रूपी महा पर्वत के शतखण्ड करने वाले थे। संभव है, सोमसेन इनके दीक्षा गुरु हों और त्रिभुवनचन्द्र उनके विद्यागुरु रहे हों। इनका समय भी विक्रम की १३ वीं शताब्दी का प्रारंभ है। जयसेन ने समयसार की तात्पर्य वत्ति के अन्त में, ब्रह्मदेव की परमात्म प्रकाश टीका की अन्तिम भावना को-जिसमें लिखा है कि परमात्मप्रकाश की टीका पढ़कर भव्य जनों को क्या करना चाहिए वाक्यों के साथ उल्लिखित है उसे, ज्यों के त्यों रूप में उद्धत किया है । अमरकोति प्रस्तुत अमरकीति काप्टासंघान्तर्गत उत्तर माथुर संघ के विद्वान मुनि चन्द्रकोर्ति के शिप्य एवं अनुज थे। अमरकीति की माता का नाम 'चचिणी' और पिता का नाम 'गूणपाल' था। इन्होने अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख निम्न प्रकार किया है'-अमितगति द्वितीय (१०५० से १०७३) के उत्तरवती शान्तिपंण, अमरमेन, श्रीषण, श्रीचन्द्र और अमरकीति । इन विद्वानों का और अमितगति द्वितीय में पूर्ववर्ती चार विद्वानो का-देवमेन 'मित गति प्रथम, नेमिषेण और माधवमेन इन सब दश प्राचार्यो का समय दसवी शताब्दो मे मं०१०४७ तक टाई सौ वर्ष के लगभग अविच्छिन्न परम्परा का बोध होता है। इन अमरकीति की परम्परा के गिप्यों का कोई उल्लेख नहीं मिलता। सिर्फ एक गिप्य का उल्लेख्य उपलब्ध हुआ है, जिनका नाम इन्द्रनन्दी है, जिन्होंने शक राबत् ११८० (वि० सं०१३१५) में हेमचन्द्राचार्य के योगशास्त्र पर संस्कृत टीका लिखी है। इसी परम्परा में उदय चन्द्र, बालचन्द्र और विनय. चन्द्र मुनि हुए हैं। समय कवि अमरकीर्ति का समय विक्रम को १३ वीं शताब्दी है। क्योंकि कवि ने अपने णेमणाहचरिउ को सं० १२४४ में भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी को समाप्त किया है और छक्कम्मोवास' (पटकर्मोपदेश) वि० सं०१२४७ बीतने पर भाद्रपद शुक्ला १४ गमवार के दिन आलस को दूर कर एक महीने में बनाकर समाप्त किया है। पदकर्मोपदेश की रचना गजरात देश के महीयड प्रदेश के गोध्रा नगर के आदिनाथ मन्दिर में बैठकर की है। उस समय गुजरात में चालुक्य अथवा सोलंकी वश के कण्ह या कृष्णनरेन्द्र का राज्य था, जिसको राजधानी अनहि लवाड़ा थी। जो वंदिग्गदेव का पुत्र था । परन्तु इतिहास में वदिग्गदेव और उनके पुत्र कृष्णनरेन्द्र का का उल्लेख देखने में नही आया। उस समय अनहिलवाड़े के सिंहासन पर भीम द्वितीय का राज्य शासन था। इनके बाद बघेलवश को शाखा ने अपना राज्य प्रतिष्ठिन किया है। इनका राज्य सं० १२२६ से १२३६ तक बतलाया जाता है। सवत् १२२० से १२३६ तक कुमारपाल, अजयपाल और मूलराज द्वितीय वहां के शासक रहे हैं। भीम द्वितीय के शासन समय से लूक्य वंश की एक गाखा महीकांठा प्रदेश में प्रतिष्ठित हो गई, जिसकी राजधानी गोध्रा थी। इस सम्बन्ध १. अनेकान्त वर्ष २० कि०३ पृ० १०७ २. जैन ग्रन्थ प्रशरित संग्रह भा०२ पृ० ५६ ३. नाहं रज्जि दट्ट'नए विक्कमकालिगए, बारहमयच उ आलए मुक्व, जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० २ पृ० ५६ ४. वारह सयहं समत्त चयालिहि, विक्कम संवच्छर हु विशालहिं । गहिमि भट्ट वयह पक्खंतरि, गुरुवारम्मि चउहिमि वासरि । इक्के मासे इहु मम्मत्तिउ सई लिहियउ आलसु अवहत्थिउ । -जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा०२ पृ० १३ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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