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________________ ३८० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ थे, जिनका नाम विमलसेन था। इन्ही विमलसेन के शिष्य उक्त देवसेन थे जो सेनगण के विद्वान्, धर्माधर्म के विशेषज्ञ, सयम के धारक तथा भव्यरूप कमलों के अज्ञान तम के विनाशक रवि (सूर्य) थे । शास्त्रों के ग्राहक, कुशील के विनाशक धर्मकथा के प्रभावक, रत्नत्रय के धारक और जिन गुणों में अनुरक्त थे। प्रस्तुत देवसेन मम्मलपूरी में निवास करते थे। जैसा कि निम्न प्रशस्ति वाक्य से प्रकट है :-णिव मम्मल्लपुरि हो णिवसंते, चारुटाणे गुण गणवंते ।" इससे देवसेन दक्षिण देश के निवासी जान पड़ते हैं । इन्होंने राजा की मम्मलपुरी' में रहते हुए सुलोचना चरिउ की रचना राक्षस संवत्सर में श्रावण शुक्ला चतुर्दशी बुधवार के दिन की थी। ग्रन्थ को रचना राक्षस संवत्सर में हुई है। राक्षस संवत्सर साठ सवत्सरों में से ४६ वां सवत्सर हैं । ज्योतिष की गणनानुसार एक राक्षस संवत्सर सन् १०७५ (वि० सं०११३२) में २६ जुलाई को श्रावण शुक्ला बुधवार के दिन पड़ता है और दूसरा सन् १३१५ (वि० स० १३७२)में १६ जुलाई को उक्त चतुर्दशी बुधवार के दिन पड़ता है। इन दोनों समयों में २४० वर्ष का अन्तर है । प्रतः इनमें पहला सन् १०७५ (वि० सं० ११३२) इस ग्रन्थ की रचना का सूचक जान पड़ता है। मुनि देवसेन ने अपने से पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख करते हुए बाल्मीकि, व्यास, बाण , मयूर, हलिय गोविन्द, चतुर्मुख स्वयम्भ, पुष्पदन्त और भूपाल कवि का नाम दिया है। इनमें पुष्पदन्त का समय वि०म० १०३५ के लगभग है। पौर भूपाल कवि का समय प्राचार्य गुणभद्र के बाद और पं० आशाधर के पूर्ववर्ती है । अतः सभवतः ११वीं के विद्वान जान पड़ते हैं। डा. ज्योति प्रसाद ने जैन सन्देश शोधांक १५ में देवसेन नामक विद्वानों का परिचय कराते हए लिखा हैंकल्याणि के चालुक्य वंश में जयसिह प्रथम (१०११-१०४२) का उत्तराधिकारी सोमेश्वर प्रथम त्रैलोक्य का नाम पाहवमल्ल था जिसका शासन काल लगभग १०४२-१०६८ ई०) था, और जिसका उत्तराधिकारी सोमेश्वर द्वितीय भुवनैकमल्ल (१०६८-१०७५ ई०) था । सोमेश्वर प्रथम नाम का राजा सामान्यतया त्रैलोक्यमल्ल नाम से प्रसिद्ध था, बड़ा प्रतापी था, दक्षिण भारत का बहुभाग उसके प्राधीन था। मम्मल नगर भी उसके राज्य में था। अतएव गंड विमुक्त रामभद्र का समय भी लगभग सन् १०४०-१०७० ई. में होना चाहिये और उनकी तीसरी पीढ़ी में होने वाले देवसेन ५० वर्ष पीछे (११२० ई०) में होने चाहिए। उक्त डा० सा० ने लिखा है एक अन्य गणना के अनुसार राक्षस संवत १०६२-६३ ई०, ११२२-२३ ई० और ११८२-८३ ई० की तिथि में पड़ता था। इन तीनों तिथियों में से ११२२-२३ ई० की तिथि ही अधिक संगत प्रतीत होती है। डा० ज्योति प्रसाद के द्वारा बतलाई तिथि में और ऊपर की ज्योतिष के अनुसार बतलाई तिथि में ४५ वर्ष का अन्तर पड़ता है । विद्वानों को इस सम्बन्ध में विचार कर प्रस्तुत देवसेन का समय मानना चाहिए। वे १२वी शताब्दी के विद्वान जान पडते हैं। रचना मुनि देवसेन की एकमात्र कृति 'सुलोयणाचरिउ' है। प्रस्तुत ग्रन्थ की २८ सन्धियों में भरत चक्रवर्ती, (जिनके नाम से इस देश का नाम 'भारतवर्ष' पड़ा है) के सेनापति जयकुमार की धर्म पत्नी सुलोचना का, जो काशी के राजा अकम्पन और सुप्रभा देवी की सुपुत्री थी, चरित अंकित किया गया है। सुलोचना अनुपम सुन्दरी थी। इसके स्वयम्बर में अनेक देशों के बडे-बड़े राजागण माये थे। सुलोचना को देखकर वे मुग्ध हो गए। उनका हृदय क्षुब्ध हो उठा और उसकी प्राप्ति की प्रबल इच्छा करने लगे। स्वयंवर में सुलोचना ने जयकुमार को चुना, उनके गले में वरमाला डाल दी। इससे चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति क्रुद्ध हो उठा, और उसने उसमें अपना अपमान १. प्रस्तुत मम्मलपुर तमिल प्रदेश का मम्मलपुर जान पड़ता है जिसका निर्माण महामल्ल पल्लव ने किया था, जैसा कि डा० दशरथ शर्मा के निम्न वाक्य से प्रकट है। -Mammalpuram foundedby Mahamalla Pallava जैन ग्रंथ प्र०सं० मा०२ काफुठनोट २. रक्वस-संवच्छरबुह-दिवसए, मुषक-च उसि सावरण मासए । चरित सुखोयणाहि गिप्पण्णाउ, सद्-अन्थ-वण्याण-मपुष्णः ।। जैन अथ शान्ति से भा० २ १२०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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