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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३४५ मणी पौर दानादि द्वारा चतुर्विध संघका संयोपक था। उसकी 'राणू' नामक साध्वी पत्नी से तीन पुत्र और चार पुत्रियाँ उत्पन्न हुई थीं। वीजा, साहनपाल और साढदेव । श्री, शृंगारदेवी, मुन्दु और सोखू, । इनमें से सुन्दु या सुन्दिका विशेषरूप से जैन धर्म के प्रचार और उद्धार में रुचि रखती थी। कृष्ण की सन्तान ने अपने कर्म क्षय के हेतु कथाकोश को व्याख्या कराई । कर्ता ने भव्यों की प्रार्थना से पूर्व प्राचार्य की कृति को रचना को श्रीचन्द्र के सम्मुख की। इसी कृष्ण श्रावक की प्रेरणा से कवि ने उक्त कथाकोश को बनाया था। प्रस्तुत ग्रन्थ विक्रम की ११वों शताब्दी की रचना है। रचना काल कवि श्रीचन्द्र ने अपना यह कथा ग्रन्थ मूलराज नरेश के राज्यकाल में अणहिलपुर पाटन में समाप्त किया था। इतिहास से ज्ञात होता है कि मूलराज सोलंकी ने सं। १६८ में चावडा वंशीय अपने मामा सामन्तसिंह (भूयड़) को मार कर राज्य छीन लिया था । और स्वयं गुजगत की राजधानी पाटन (अणहिलवाड़े) की गद्दी पर बैठ गया। इसने वि० सं० १०१७ से १०५२ तक राज्य किया है । मध्य में मने धरणी वगह पर भी चढ़ा की थी, तब उसने राष्ट्रकूट राजा धवल की शरण ली, ऐमा धवल के वि० स० १०५३ के शिलालेख से स्पष्ट है । मूलराज सोलंकी चालुक्य राजा भीमदेव का पुत्र था, उसके तीन पुत्र थे मूल राज, क्षमरज, और कर्ण । इनमें मूलराज का देहान्त अपने पिता भीमदेव के जीवन काल में ही हो गया था और अन्तिम समय में क्षेमराज को राज्य देना चाहा; परन्तु उसने स्वीकार नहीं किया, तब उसने लघुपुत्र कर्ण को राज्य देकर सम्वती नदी के तट पर स्थित मंडकेश्वर में तपश्चरण करने लगा। अतः श्रीचन्द्र ने अपना यह कथाकोश सन् १६५ वि०म० १०५२ में या उसके एक दो वर्ष पूर्व ही सन् ६३ में बनाया होगा। रत्नकरण्डश्रावकाचार-प्रस्तुत ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्र के रत्नकरण्ड नामक उपासकाध्ययन रूप गंभीर कति का व्याख्यानमात्र है। कवि ने इस आधार ग्रन्थ को २१ मधियों में विभक्त किया है। जिसकी प्रानमानिक श्लोक संख्या चार हजार चार सौ अट्ठाईस बतलाई गई है। कथन का पुष्ट करने क लिये अनेक उदाहरण और व्रता चरण करने वालों को कथाओं को प्रस्तुत किया गया है। गहस्थो के आचार विषय का कथाओं के माध्यम से विशद किया गया है जिससे जन साधारण उसको समझ सके । अनेक संस्कन पद्य भी उद्धत किये हैं। कवि ने ग्रन्थ में एक स्थल पर अपभ्रश के कुछ छन्दों का भी उल्लेख किया है। अरणाल, प्रावलिया, चच्चरि, रासक, वत्थ, अडिल, पद्धडिया, दोहा, उपदोहा, दुवई, हेला, गाथा, उपगाथा, ध्रुवक, खंडक उवखंडक और घत्ता आदि के नाम दिये हैं यथा छंदणियारणाल प्रावलियहि, चच्चरि रासय रासहि ललियाह । वत्थु प्रवत्थु जाइ विसेसहि, अडिल मडिल पद्धडिया अंसहि । दोहय उवदोहय अवभंसहि, दुवई हेला गावगाहहि । धुवय खंड उवखंड य घहि, समविसमद्दसमेहि विचिनहिं । प्रशस्ति में हरिनन्दि मुनीन्द्र, समन्तभद्र, अकलंक, कुलभूपण, पादपुज्य (पूज्यपाद) विद्यानन्दि, अनन्त १. यं मूलादुदमूलपद गुरुबलः श्री मूलगज नृपो, दन्धिो धरणीवराह नृपति यद्वद् द्विपः पादपम् । आयातं भूविकांदि शीक मभिको यस्तं शरण्यो दधौ। दंष्ट्रायामिवरूढमहिमा कोलो मही मण्डलम् ।। -एपि ग्राफिया इंडिका जि.१ पृ० २१ २. देखो, राजपूतानेका इतिहास दूसरा संस्करण भा० १ पृ. २४१ ३. देखो, राजपूताने का इतिहास प्रथम जिल्द दूसरा सं० पृ० १९२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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