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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ किया गया, उससे मन्दिर तथा उसकी चहार दीवार बनवाई गई। इस जिनालय के निर्माण में ७ करोड़ लोगों को सहायता होने से इसका नाम 'एल्कोटि जिनालय' रक्खा गया। प्रारसिय केरे के लोगों ने शान्तिनाथ का एक मन्दिर और बनवाया था। उसके प्रबन्ध के लिये दान दिया था। जैन लेख सं० भा० ३ पृ० ३११ अर्हनन्दि प्रहनन्दि-मूलसंघ देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य माघनन्दि सिद्धान्त देव के शिष्य थे। जो रूप नारायण वसदि के प्राचार्य थे। शक सं० १०७३ (सन् ११५१) में कामगाबुण्ड के द्वारा बनवाए हुए मन्दिर के, जो क्षल्लकपुर (कोल्हापुर) में रूपनारायण वसदिके नाम से प्रसिद्ध है। पार्श्वनाथ भगवान की प्रष्ट प्रकारी पूजा के न्दिर की मरम्मत तथा मुनिजनों के आहारार्थ विजयादित्यदेव ने अपने मामा सामन्त लक्ष्मण की प्रेरणा से भूमिका दान दिया। इस कारण अर्हनन्दि का समय ईसा की १२वीं शताब्दी का मध्यकाल है। -जैनलेख सं० भा०२ पृ०६६ माइल्ल धवल यह द्रव्य स्वभाव नयचक्र के कर्ता माइल्ल धवल हैं। जो देवसेन के शिष्य थे। उन्होंने नयचक्र के कर्ता देवसेन गुरु को नमस्कार किया है और उन्हें स्यात् शब्द से युक्त सुनय के द्वारा दुर्नय रूपी दैत्य के शरीर का विदारण करने में श्रेष्ठ वीर बतलाया है। यथा सियसदसुणयदुण्णयवणुदेह-विदारणेक्कवरवीरं। तं देवसेणदेवं णयचक्कयरं गुरु णमह ॥ ४२३ ग्रंथ कर्ता ने कुन्द कुन्दाचार्य के शास्त्र से सार ग्रहण करके अपने और दूसरों के उपकार के लिए द्रव्य स्वभाव नयचक्र की रचना की है । इस ग्रन्थ में ४२५ गाथाएँ है । ग्रन्थ निम्न १२ अधिकारों में विभाजित है । जैसा कि उसकी निम्न दो गाथाओं से स्पष्ट है : गुणपज्जाया दवियं काया पंचत्थि सत्त तच्चाणि । अण्णे विणव पयत्था पमाण-णय तह य णिक्खेवं ॥ दंसणणाणचरित्ते कमसो उवयारभेदइदरेहि। दव्वासहावपयासे प्रहियारा बारसवियप्पा ॥ य. व्य. पचास्तिकाय, साततत्त्व, नौ पदार्थ, प्रमाण, नय, निक्षेप और उपचार तथा निश्चय नय के भेद से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र । इन वारह अधिकारों में द्रव्यानुयोग का कथन समाविष्ट हो जाता है। क्योंकि जैन सिद्धान्त में छह द्रव्य पांच अस्तिकाय, सप्ततत्त्व, और नौ पदार्थ हैं। गण और पर्यायों का पाधार द्रव्य है और प्रमाण नय निक्षेप ज्ञेयों के जानने के साधन । चारित्र मोक्ष के मार्ग हैं। इस तरह इस नयचक्र में सभी ज्ञेयों का कथन किया गया है। माइल्ल धवल ने ४२०वीं गाथा में लिखा है कि दोहों में रचित शास्त्र को सुनते ही शुभंकरने हंस दिया पौर बोला-इस रूप में यह ग्रन्थ शोभा नहीं देता, गाथाओं में इसकी रचना करो। सुणिऊण वोहसत्थं सिग्धं हसिऊण सुहंकरो भणह। एस्थ ण सोहा प्रत्यो गाहाबंषेण तं भणह ॥४२० पत्य कर्ता ने इस दोहा बद्ध द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र को कब किसने और कहां बनाया, इसका कोई उल्लेखनहीं किया । द्रव्य स्वभाव प्रकाश को दोहामों में रचा हुमा देखा, पौर उसे माइल्ल धवल ने गाथा बद्ध किया। वव्वसहावपयासं दोहयबंषेण प्रासि जं विठं । तंगाहावंधण रइयं माइल्ल षवलेण ॥४२४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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