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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ गुणभद्र गुणभद्र- मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ और कोण्ड कुन्दान्वय के दिवाकर थे। इनके शिष्य नयकीर्तिसिद्धान्तदेव थे और प्रशिप्य भानूकीर्ति, जिन्हें शक सं० १०६५ के विजय संवत् में होयसल वंश के बल्लाल नरेश ने पार्श्व व्रतीन्द्र को चौबीसवें तीर्थकरों की पूजन हेतु 'मारुहल्लि' नाम का एक गाँव दान में दिया था। प्रतापख इनका समय वि० संम्बत् १२३० है । और गणभद्र का समय इससे ३० वर्ष पहले माना जाय तो भी विक्रम की वीं शताब्दो का अन्तिम चरण हो सकता है।' (देखो, जैनलेख सं० भा० ११०३८५) कर्णपार्य-के कण्णय, कर्णय, और कण्णमय आदि नामान्तर हैं। ये नाम इसके ग्रन्थों में जगह-जगह पाये जाते हैं। किले कल दर्ग के स्वामी गोवर्धन या गोपन राजा के विजयादित्य, लक्ष्मण या लक्ष्मी धर वर्धमान और शान्ति नाम के चार पुत्र थे। इनमें से कवि लक्ष्मीधर का प्राथित था। इस कवि के बनाये हए नेमिनाथ पुराण, वीरेश चरित और मालती माधव ये तीन ग्रन्थ बताये जाते हैं। परन्तु इस समय केबल नेमिनाथ पूराण ही उपलब्ध है। इसमें २२ व तीर्थकर नेमिनाथ का चरित वर्णित है। ग्रन्थ में १४ प्राश्वास हैं और वह चम्पू रूप है । प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि उसे कवि ने लक्ष्मीधर की प्रेरणा से बनाया है। इसमें लक्ष्मीधर राजा की और कृष्ण को समता बतला कर स्तुति की है । लक्ष्मीधर के गुरु नेमिचन्द्र मुनि थे, और कवि के गुरु कल्याण कीति थे। कल्याण कीति मलधारि गुणचन्द्र के शिप्य और मेघचन्द्र विद्यदेव के-जो सन् १११५ में मृत्यु को प्राप्त हए हैं। सतीर्थ या सहपाठी थे। गुणचन्द्र भवनकमल्ल राजा (११६६ से १०६७ तक ) के समय में उनके गुरु थे। कविता संगम प्रौर ललित है। रुद्रभद्र (१२८० अण्डव्य (१२३५) मंगरस १५०६) और दोड्डय्य आदि कवियों ने इसकी प्रशंसा की है। (कर्नाटक जैनकवि) श्रुतकीति-(पंचवस्तु व्याकरण ग्रन्थ के कर्ता)नन्दि संघ की गुर्वावली में श्रुतकीति को वैयाकरण भास्कर लिखा है ।' श्रुतकीर्ति की गुरु परम्परा ज्ञात नहीं है । और उक्त व्याकरण ग्रंथ में कर्ता का नाम नहीं है। ग्रन्थ के पांचवे पत्र में श्रुतकीति नाम पाया है। जिससे मालूम होता है कि वे व्याकरण ग्रंथ के रचयिता हैं : "याम-वैर-वर्ण कर-चरणादीनां संधीनां बहनां संभवत्वात् सशयान: शिप्यः स प्रच्छतिस्म-कस्सन्धिरिति । सज्ञास्वर प्रकृति हलज विसर्ग जन्मा सन्धिस्तू इतीत्थ मिहाहरन्ये । तत्र स्वर प्रकृति हल्ज विकल्पतोऽस्मिन संधि विधा कथयति श्रुतकीनिगर्यः ।" __ कनड़ी भाषा के 'चन्द्रप्रभ चरित' नामक ग्रंथ के कर्ता अग्गल कवि ने श्रुतकीर्ति को अपना गुरु बतलाया है । "इदु परमपुरुनाथकुलभूभृत समुद्भूत प्रवचन सरित्सरिन्नाथ-श्रुतकीति त्रैविद्य चक्रवति पद पद्मनिधान दीपवति श्रीमदग्गल देव विरचिते चन्द्रप्रभचरिते-" इत्यादि। यह चन्द्रप्रभ चरित शक सं० १०११ (वि० सं० ११४६) में बन कर समाप्त हुआ है। अतएव यह श्रुतकीति विद्य चक्रवर्ती विक्रम की १२ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। वृत्ति विलास वृत्ति विलास-यह अमरकीति के शिष्य थे। इसके दो ग्रंथों का-धर्म परीक्षा और शास्त्र सार का-पता चलता है। धर्म परीक्षा, अमितगतिकृत संस्कृत धर्म परीक्षा के आधार से बनाई है। इसकी रचना बहुत ही सरल पौर सुन्दर है। इसके गद्य-पद्य मय दश प्राश्वास हैं। प्रारम्भ में वर्धमान स्वामी की स्तुति की है, फिर सिद्धपरमेष्ठी, यक्ष यक्षिणी और सरस्वती को नमस्कार कर केवलियों से लेकर द्वितीय हेमदेव तक गुरुत्रों का स्मरण किया है। ग्रंथ के अन्त में निम्न पुष्पिका वाक्य दिया है:-विनमदमरमुकुटतटघटितमणिगणमरीचि मञ्जरी पुजरंजित १ विद्य- श्रुतकीाख्यो वैयाकरण भास्करः ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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