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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, प्राचार्य ३२५ माधवचन्द्र विद्य प्रस्तुत माधवचन्द्र नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के प्रधान शिष्य थे। प्राकृत संस्कृत भाषा के साथ सिद्धान्त व्याकरण और न्याय शास्त्र के विद्वान् थे। इसी से विद्य कहलाते थे। इन्होंने अपने गुरु नेमिचन्द्र की सम्मति से त्रिलोकसार में कुछ गाथाएं यत्र-तत्र निविष्ट की हैं जैसा कि उनको निम्न गाथा से स्पष्ट है : गुरुणे मिचन्दसम्मद कदिवयगाहा तहि तहि रइया ।। माहवचन्द तिविज्जेणिय मणसदणिज्ज मज्जेहिं ।। त्रिलोकसार की गाथा संख्या १०१८ है। माधवचन्द्र विद्य ने उस पर संस्कृत टीका लिखी है। यह ग्रन्थ संस्कृत टीका के साथ माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित हो चका है, परन्तु बहत दिनों से अप्राप्य है। टीकाकार ने लिखा है कि गोम्मटसार की तरह इस ग्रन्थ का निर्माण भी प्रधानतः चामुण्डराय को लक्ष्य करके उनके प्रबोधार्थ रचा है। और इस बात को माधवचन्द्र जी ने अपनी टीका के प्रारम्भ में व्यक्त किया है। 'श्रीमद प्रतिहता प्रतिम निःप्रतिपक्षनिष्करण भगवन्नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेवश्चतुरनुयोगचतुरुदधिपारगश्चामुण्डराय प्रतिबोधनव्याजन अशेषविनेयजनप्रतिवोधनार्थ त्रिलोकमारनामानं ग्रन्थमारचयन" वाक्या द्वारा स्पष्ट किया है। टीकाकार ने टीका का रचना समय नहीं दिया। फिर भी चामुण्डराय के समय के कारण इनका समय सन् १७८ वि० सं० १०३५ निश्चित है। इस त्रिलोकसार ग्रन्थ की पं० टोडर मल जी ने स १८१८ में हिन्दी टीका बनाई हैं जिसमें उन्होंने गणित की संदष्टियों का भी अच्छा परिचय दिया है, जिसका उन्होंने बाद में संशोधन भी किया है। माधव चन्द्र विद्य चामुण्डराय के समकालीन है । अतः इनका समय विक्रम की ११ वों शताब्दी का मध्यभाग है। पद्मनन्दी प्रस्तुत पद्मनन्दि वीरनन्दी के शिष्य थे । जो मूलसंघ देशीय गण के विद्वान् थे। पद्मनन्दो ने अपने गुरु का नाम 'दान पञ्चाशत्' के निम्न पद्य में व्यक्त किया है, और बतलाया है कि रत्नत्रयरूप आभरण से विभूषित श्री वीरनन्दी मुनिराज के उभय चरण कमलों के स्मरण से उत्पन्न हए प्रभाव को धारण करने वाले श्री पद्मनन्दी मनि ने ललित वर्गों के समूह से संयुक्त बावन पद्यों का यह दान प्रकरण रचा है : रत्नत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद पद्मद्वयस्मरणसंजनितप्रभावः । श्री पद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदान पच्चाशतं ललितवर्ण चयं चकार ।। ग्रन्थ कर्ता ने और भी दो प्रकरणों में वीरनन्दी का स्मरण किया है। यह वीरनन्दी वे ज्ञात होते हैं। जो मेघचन्द्र त्रविद्य के शिष्य थे। मेषचन्द्र विद्यदेव के दो शिष्य थे. प्रभाचन्द्र और वीरनन्दी। उनमें प्रभाचन्द्र पागम के अच्छे ज्ञाता थे और वीरनन्दो सैद्धान्तिक विद्वान थे। वीरनन्दी ने प्राचार सार और उसकी अनड़ी टीका शक स० १०७६ (वि० सं० १२४१) में बनाई थी। इनके गरु मेघचन्द विद्य का स्वर्गवास शक मं०१०३७ (वि० सं० ११७२) में हुआ था । अतएव इन वीरनन्दी का समय सं० १११२ से १२१२ तक है । सं० १२११ के बाद ही उनका स्वर्गवास हुप्रा होगा। पभनागना समय पद्मनन्दि ने अपनी रचनाओं में समय का उल्लेख नहीं किया है, इससे रचनाकाल के निश्चित करने में बडी कठिनाई उपस्थित होती है। पद्मनन्दि पंच विशति प्रकरणों पर प्राचार्य अमृतचन्द्र, सोमदेव और अमितगति के ग्रंथों का प्रभाव और अनुशरण परिलक्षित होता है । इससे पद्मनन्दि बाद के विद्वान जान पड़ते हैं। इनमें अमित गति द्वितीय विक्रमकी ११वीं शताब्दी के विद्वान् हैं उनका समय सं० १०५० से १०७३ का निश्चित है। प्रस्तुत पद्मनन्दि इनसे बहत बाद में हुए हैं। यहां पर यह भी ज्ञातव्य हैं कि पद्मनन्दि के चतुर्थ प्रकरणगत एकत्व सप्तति पर एक कन्नड़ टीका उपलब्ध है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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