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________________ ग्यारहवी और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य ३२३ रचना काल ब्रह्मदेव ने अपनी टीकाओ मे उनका रचना काल नही दिया, अोर न अपनी गुरुपरम्परा का ही उल्लेख किया है। इसमे टीकाग्रो के रचना काल के निर्णय करने में कठिनाई हो रही है। द्रव्यसंग्रह की सबसे पुरानन प्रतिलिपि म०२४१६ की लिखी हई जयपर के ठोलियो के मन्दिर के शास्त्रभंडार में उपलब्ध है, जो योगिनीपूर दिल्ली में फीरोजगाह तुगलक के राज्य काल मे अग्रवाल वगी भरहपाल ने लिखवाई थी। इसमें इतना नी स्पष्ट कि उक्त टाकाम० १४१६ मे वाद की नही है किन्तु पूर्ववर्ती हे। क्योकि इसका निर्माण धारा नगरी के गजा भोज के गज्यकाल में हरा है। राजा भाज का राज्य काल म० १०७० मे १११० तक रहा है । म० १०७६ ग्रार १०७६ के उसके दो दान पत्र भी मिले है। इसमे द्रव्य मग्रह की टीका विक्रम की ११ वी शताब्दी के उपान्त्य पोर १० वी के प्रारम्भ मे रची गई है। यही निष्कर्ष टीका में उदधत ग्रन्थान्तरो के अवतरणो में भी स्पष्ट होता है। दानो टीकाग्रो में अमतचन्द्र, गमिह अमितगति प्रथम चामुण्डगय, डड्ढा पोर प्रभाचन्द्र आदि के ग्रथों के अवतरण मिलते है, जो विक्रम की १० वी पार ग्यारहवी शताब्दी के विद्वान है। इससे भी ब्रह्मदेव की टीकानो का वही समय निश्चित होता है, जिसका उल्ले ग्व ऊपर किया गया है। अतः ब्रह्मदेव का समय ११ वी शताब्दी का उपान्य पोर :- वो का प्रारम्भिक भाग है। त्रिभुवनचन्द्र मूलमघ नन्दिमघ बलात्कार गण के विद्वान थे गुरु परम्परा में वर्धमान, विद्यानन्द, माणिक्यनन्दि, गुणकीर्ति, विमलचन्द्र, गुणचन्द्र, अभय नन्दि, मकलचन्द्र, गण्डविमक्त पार त्रिभवनचन्द्र के नाम दिये है। धारवाड जिले के प्रष्णिगेर मार गावरवाड ग्रामो में प्राप्त दा विस्तृत शिलालेख मिोहै। उनमे कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर (द्वितीय) के समय मे गन० १०७०-७१ में मूलमघ नन्दिमघ बलात्कार गण क प्राचार्य त्रिभुवनचन्द्र को दान दिये जाने का वर्णन है। यह दान गग राजा बूतुग (द्वितीय) द्वारा अण्णिगेरे में निर्मित गगपेमाडि जिनालय के लिये दिया गया था। चोल राजानो के आक्रमण मे प्राप्त क्षति को दूर कर पुन: यह दान दिया था। अतएव त्रिभवन चन्द्र का समय ईसा की ११ वी शताब्दी का उत्तरार्ध है। एपिग्राफिया डिका भा० १५ पृ० ३३७ रामसेन प्रस्तत राममेन मलमघ, मेनगण ओर पोगरिगच्छ के विद्वान गूणभद्र व्रतीन्द्र के शिष्य थे। इन्हें प्रतिकण्ठ सिगय्यने अपने शासक वम्मदव का प्रार्थना पत्र देकर त्रिभुवन मल्ल देव से चालुक्य विक्रम वर्ष २ सन् १०७७ ई. में चालक्य गग पेनिडि जिनालय की, जिन पूजा अभिषेक और ऋषि पाहारदानादि के लिये गाव का दान दिया गया था। अतः इन रामसेन का समय ईमा की ११ वी शताब्दी है। - - - - - दयापाल मुनि मुनिदयापाल २ द्रविड मघग्थ नन्दि सघ अगलान्वय के विद्वान थे। इनके गुरुका नाम मतिसागर था। १मवत १४१६ वा भावमुदी १३ गगै दिने श्रीमद्योगिनी पुरे मकल राज्य शिगेमुकुट मारिणक्य मरीचिकृत चरण कमल पादपीठम्य श्रीगत् पेगेजमाहे मकलमाम्राउगधुगविभ्रागणम्य समये वर्तमाने श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये मूलसघ मरस्वती गच्छे बलात्कार गरगे भट्टारक रत्नकीति तरुण तारिणत्वमुर्वीर्वाण श्री प्रभाचन्द्राणा तम्य शिष्य ब्रह्मनाथ पठनार्थ अनोत्कान्वये गोहिल गोत्रे भग्थल वास्तव्य परम थावन साधु माउ भार्या वीगे तयो पुत्र साधु ऊधस भार्या बालही तस्य पुत्र कुलधर भार्या पाणधही तस्य पुत्र भरहपाल भार्या लोधाही श्री भरहपाल लिखापित कर्मक्षयार्थ । कनकदेव पडित लिखतम् शुभं भवतु । २. हित पिणा यम्य नग्गामुदात्तवाचा निबद्धाहित-रूपसिद्धिः । वद्यो दयापाल मुनिः सवाचा सिद्धम्सतामूई नि य: प्रभाव । -श्रवणवेलगोल ५४ वा शिला लेख
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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