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________________ ३२० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ रचनाकाल महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदाय में उसका रचनाकाल नहीं दिया। इससे उसके रचनाकाल के निश्चित करने में बड़ी कठिनाई हो रही है। धर्मशर्माभ्युदय को सबसे पुरातन प्रतिलिपि सं० १२८७ सन् १२३० ई०) की संधवी पाड़ा पुस्तक भण्डार पाटण में उपलब्ध है। उस प्रति के अन्त में लिखा है कि-"१२८७ वर्षे हरिचन्द्र कवि विरचित धर्मशर्माभ्युदयकाव्य पुस्तिकाश्रीरत्नाकरमूरिमादेगेनकोतिचंद्रगणिना लिखित मिति भद्रम् ॥” इससे इतना तो स्पष्ट है कि धर्मशर्माभ्युदय सन् १२३० के पूर्व की रचना है, उसके बाद की नहीं। पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने अनेकान्त वर्ष ८ किरण १०-११ में वीरनन्दी प्राचार्य के चन्द्रप्रभ चरित के साथ धर्मशर्माभ्युदय की तुलना द्वारा दोनों की अत्यधिक समानता बतलाई थी, पर उनमें साहित्यिक ऋण नहीं है। किन्तु हरिचन्द्र के सामने चन्द्रप्रभ जरूर रहा है। चन्द्रप्रभ चरित की रचना सं० १०१६ के लगभग हुई है। क्योंकि वीरनन्दी अभयनन्दी के शिष्य थे। और गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती भी अभयनन्दी के शिष्य थे । किन्तु वीरनन्दी और इन्द्रनन्दी नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गुरु भाई थे। चामुण्डराय उस समय विद्यमान थे और गोम्टसार की रचना उनके प्रश्नानुसार हुई थी। चामुण्डराय ने अपना पुगण शक सं० ६०० (वि०सं० १०३५) में बनाकर समाप्त किया था। अत: प्रस्तुत धर्मगर्माभ्युदय ११वीं शताब्दी की रचना है। वहां यह भी विचराणीय है कि नेमिनिर्वाण काव्य और धर्मशर्माभ्युदय दोनों में एक दूसरे का प्रभाव परिलक्षित है। और नेमिनिर्वाण काव्य के अनेक पद्यकवि वाग्भट ने वाग्भट्टालंकार में उद्धत किये है। वाग्भट्टालंकार का रचना काल वि० स० ११५५ से ११६७ के मध्य का है। अत: नेमिनिर्वाण काव्य की रचना वाग्भट्टालंकार से पूर्ववर्ती है। अर्थात् वह विक्रम की ११ शताब्दी के मध्यकाल की रचना है। कवि की दूसरी कृति जीबंधरचम्पू है । यह गद्य-पद्यमय चम्पू काव्य है इसमें भगवान महावीर के समकालीन होने वाले राजा जीवंधर का पावन चरित अंकित किया गया है । जीवंधर चम्पू के इस कथानक का आधार वादीभ सिंह की क्षत्रचूड़ामणि और गद्यचित्तामणि है । यह चम्पू काव्य सरस और सुन्दर है। रचना प्रौढ और सालंकार है। क्षत्र चुडामणि के समान ही इसमें ११ लम्ब हैं । कवि ग्रन्थ रचना में अत्यन्त कुशल है उसकी कोमल कान्त पदावली रस और अलंकार की पूटने उसे अत्यन्त आर्कषक बना दिया है। इसमें कवि की नैसर्गिक प्रतिभा का अलौकिक चत्मकार दृष्टिगत होने लगता है क चत्मकार दप्टिगत होने लगता है। रचना सौष्ठव तो देखते ही बनता है। इसकी रचना कब हुई इसका निश्चय करना सहज नही है । ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य की संस्कृत और हिन्दा टीका के साथ भारतीयज्ञान पीठ से प्रकाशित हो चका है। ब्रह्मदेव ब्रह्मदेव ने अपना कोई परिचय नही दिया, और न अपनी टीकामों में अपनी गूरु परम्परा का ही उल्लेख किया है । इससे उनकी जीवन-घटनाओं का परिचय देना शक्य नहीं है। ब्रह्मदेव की दो टीकाएं उपलब्ध हैं । वृह द्रव्य संग्रह टीका और परमात्म प्रकाश टीका। वृहद्रव्य संग्रह वत्ति का उत्थानिका वाक्य इस प्रकार है "प्रथ मालवदेशे धारा नाम नगराधिपति राजाभोजदेवाभिधानकलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धिन: श्रीपाल महामण्डलेश्वरस्य सम्वन्धिन्याश्रमनामनगरे श्री मुनिव्रत तीर्थकर चैत्यालये शुद्धात्म द्रव्य संवित्ति समुत्पन्न सुखामृतरसास्वादविपरीतनारकादि दुःख भयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्न सुखसुधारस पियासितस्य भेदाभेद रत्नत्रय भावना प्रियस्य भव्यवरपण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेकनियोगधिकारिसोमाभिधान राजश्रेष्ठिनो निमित्तं श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त देवः पूर्व षडविंशति गाथा भिलघु द्रव्यसंग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषतत्वपरिज्ञानार्थ विरचितस्य द्रव्य संग्रहस्याधिकार शुद्धि पूर्वकत्वेन व्याल्यावृत्तिः प्रारभ्यते।" उत्थानिका की इन पंक्तियों में बतलाया गया है कि द्रव्य संग्रह ग्रन्थ पहले २६ गाथा के लघुरूप में नेमिचन्द्र सिद्धान्त देव के द्वारा 'सोम' नामक राजश्रेष्ठि के निमित्त प्राश्रम नामक नगर के मुनि सुव्रत चैत्यालय में रचा
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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