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________________ ३१६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग ३ भी मिलती है। सम्भव है दोनों १०-२० वर्ष के अन्तराल को लिये हुए सम सामयिक हों। इस सम्बन्ध में अभी अन्य प्रमाणों के अन्वेषण की आवश्यकता है। - नेमिनिर्वाण काव्य पर एक पंजिका उपलब्ध है । जिसके कर्ता भट्टारक ज्ञान भूषण हैं। पुष्पिका वाक्य में से नेमि निर्वाण महाकाव्य की पंजिका लिखा है। 'इति श्री भट्टारक महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः'। पंजिका की प्रतिलिपि नयामन्दिर पुरा दिल्ली के शास्त्र भण्डार में सुरक्षित है। हरिसिंह मुनि मनि हरिसिंह का उल्लेख सुदर्शन चरित्र के कर्ता नयनन्दी ने सकल विधि विधान की प्रशस्ति में किया है। नयनन्दी इनके समीप ही रहते थे। इनकी प्रेरणा से उन्होंने 'सयल विहि विहाण काव्य' की रचना की है । हरि सिंह मनि भी धारा नगरी के निवासी थे। चूकि नयनन्दी ने सं० ११०० में सुदर्शन चरित्र समाप्त किया है । अतः इनका समय भी विक्रम की ११वीं शताब्दी है। हंससिद्धान्त देव परतत प्राचार्य ससिद्धान्त देव सोमदेवाचार्य के नीतिवाक्यामत की रचना के समय लोक में प्रसिद्ध थे। और न सिद्धान्त के निरूपण में प्रमाण माने जाते थे। जैसा कि नीति वाक्यामृत की प्रशस्ति के निम्न वाक्य से भवसि समयोक्ती हंस सिद्धान्त देवः।" जाना जाता है। इनका समय सोमदेव की तरह विक्रम की १०वीं या ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है। हर्षनन्दी यह रामनन्दी की गुरु परम्परा के विद्वान् नन्दनन्दी के शिष्य थे। और जीतसार समुच्य के कर्ता वृषभ नन्दी के गुरु भाई थे । अत एव उन्होंने अपने ग्रन्थ प्रशस्ति के 'अनुज हर्षनन्दिना सुलिख्य जीतसार शास्त्रमुज्वलोद्धतं ध्वजायते'१ निम्न वाक्यों में उनका अनुजरूप से उल्लेख किया है। हर्षनन्दी ने जीतसार समूच्च की सुन्दर प्रति लिखकर दी थी। इनका समय विक्रम की दशवीं या ग्यारहवीं शताब्दी का प्रारम्भिक भाग होगा। महामुनि हेमसेन यह द्रविड संघस्थ नन्दिसंघ, अरुंगलान्वय के विद्वान् थे जो शास्त्र रूपी समुद्र के पारगामी थे। जिनके वचन रूप वज़ाभिघात से प्रवादियों के मदरूपी भूभृत खण्डित हो जाते थे। जैसा कि निम्न पद्यों से जाना जाता है: श्रीमद् विल-संधेऽस्मिन् नन्दिसंधेऽत्यरुङ्गलः । अन्वयो भाति योऽशेषः-शास्त्र-वाराशि-पारग ।। यद-वाग-वज्राभिघातेन प्रवादि-मद-भभतः । सच्चूणितास्तु भातिस्म हेमसेनो महामुनिः ।। सोमहामनि हेमसेन थे । हम्मच का यह लेख काल निर्देश से रहित है, फिर भी इसे सन १०७० ई० का कहा जाता है। प्रत: हेमसेन का समय ईसा की ११वीं शताब्दी का उपान्त्य भाग जान पडता है। भावसेन काष्ठा संघ लाडवागड गच्छ के प्राचार्य थे । गोपसेन के शिष्य और जयसेन (१०५५) के गुरु थे, जिन्हों देखो अनेकान्त वर्ष १४ किरण, १५० २७ पुराने साहित्य की खोज नाम का लेख
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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