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________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, और आचार्य के साथ तीन मकार का त्याग परिगणित था, जैसा कि आचार्य समन्तभद्र के निम्न पद्य से प्रकट है : मद्य मांस मधुत्यागः सहाणुव्रतपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणानाहुऍहिणां श्रमरणोत्तमाः ॥ _ -(रत्न करण्ड श्रावकाचार-४-६६) प्राचार्य जिनसेन के बाद अष्टमूल गुणों में पांच अणुव्रतों के स्थान पर पंच उदम्बर फलों के त्याग को शामिल किया गया है । दशवी शताब्दी के अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्धचुपाय के निम्न पद्य में प्रप्टमूल गुणों में पंच उदम्बर फलों का त्याग बतलाया है : मद्य मांसं क्षौद्रं पञ्चोदुम्बर फलानि यत्नेन । हिंसा व्युपरतिकार्मोक्तव्यानि प्रथम मेव ॥ -पुरुषार्थसिद्धय पाय ३-६१ सोमदेवाचार्य (१०१६) के उपासकाध्ययन में अष्टमल गुणों में तीन मकारों (मद्य मांस मघ) के त्याग के साथ पंच उदम्बर फलों का त्याग भी बतलाया है और इनके उतरवर्ती विद्वान अमितगति देवसेन पद्मनन्दि प्रागाधर आदि ने भी स्वीकृत किया है। कवि धनपाल ने प्राचार्य अमृत चन्द म अष्टमूल गुणों को ग्रहण किया है यदि यह मान लिया जाय तो धनपाल का समय दगवी शताब्दी का अन्तिम चरण अथवा ग्यारहवीं शताब्दी प्रथम चरण हो सकता है। वे उसके बाद के ग्रन्थकार नही है। जयसेन यह लाड बागड मंघ के पूर्णचन्द्र थे। शास्त्र समुद्र के पारगामो पार तप के निवास थे। तथा स्त्रो को कला रूपी बाणों से नहीं भिदे थे—पूर्ण ब्रह्मचर्य से प्रतिष्ठित थे । जैसा कि महासेनाचार्य के निम्न पद्य से प्रकट है श्री लाट वर्गटनभस्तलपूर्णचन्द्रः, शास्त्रार्णवान्तग सुधीस्तपसां निवासः । कान्ता कलावपि न यस्य शरैविभिन्न, स्वान्त बभूव स मुनिर्जयसेन नामा ।। इनके शिप्य गुणाकरसेन सूरि और प्रशिप्य महासन थे। महासेन को कृति प्रद्युम्नचरित्र प्रसिद्ध है। महासेन मज द्वारा पूजित थे। मुंज का समय विक्रम को ११वी शताब्दो का मध्यकाल है। इनके समय के दो दानपत्र सं० १०३१ और १०३६ के मिले हैं। सं० १०५० और १०५४ के मध्य किसी समय तैलदेव ने मंज का वध किया था। गुणाकर सेन और महासेन के ५० वर्ष कम कर दिये जाय तो जयमेन का समय १०वों शताब्दी हो सकता है। वाग्भट (नेमिनिर्वाणकाव्य कर्ता)वाग्भट नामके अनेक विद्वान हो गये हैं। उनमें प्रस्तुत वाग्भट उनसे प्राचीन और भिन्न हैं। इन्होंने अपना परिचय 'नेमिनिर्वाण' काव्य के अन्तिम पद्य में दिया है। १ मद्यमांम मधुत्यागः सहोदुग्दुम्बरपञ्चकैः । अष्टावेते गहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुतेः ॥ -उपासकाध्ययन २७० पृ० १२६ २ भारतीय साहित्य में वाग्भट नाम के अनेक विद्वानों के नाम मिलते है । एक 'वाग्भट अप्टाग हृदय' नामक वैद्य ग्रन्थ नका . जो सिन्ध देश के निवासी और सिंह गुप्त के पुत्र थे। जैमा कि अप्टाँग हृदय की कनड़ी लिपी की अन्त प्रशस्ति के निम्न पद्य से प्रकट है :-यजन्मनः सुकृतिनः खलु सिन्धुदेशे यः पुत्रवन्त मकरोद भुवि सिह गुप्तम् । तेनोक्त मेतदुभयज्ञभिषग्वरेण स्थान समाप्तमिति ॥१॥ (देखो, मैसूर के पण्डित पमराज के पुस्तकालय की कनडी प्रति ।) सोवाटिनेमिनिर्वाण काव्य के कर्ता जिनका परिचय ऊपर दिया गया है। तीसरे वाग्भट (श्वे०) वाग्भट्रालंकार के पत्र और सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह के सम कालीन और उनके महामात्य (मंत्री) थे। जय मिह का काल वि० सं० ११५० से ११९६ निश्चित हुआ है । गुजरातनो मध्यकालीन गजपूत इतिहास, दुर्गाशंकर शास्त्री का पृ० २२५ । चौथे वाग्भट नेमिकुमार के पुत्र थे, जिनका परिचय आगे दिया गया है।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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