SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 319
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य २८५ परिच्छेद हैं । इस तरह न्याय कुमुद में ७ परिक्छेद हैं। जिनमें प्रमाण नय, निक्षेप प्रोर प्रवचन प्रवेशरून प्रति पाद्य विषय का ऊहापोह के साथ विवेचन किया गया है । इनके अतिरिक्त तत्सम्बन्धि अवान्तर अनेक विषयों की पूर्व उत्तर पक्ष के रूप में चर्चा की गई है। न्याय कुमुद की भाषा ललित और प्रवाह निर्वाध है । दार्शनिक शैलो श्रीर भाषा सौष्ठव, सुखद है तथा साहित्य के मर्मज्ञ व्याख्याकार अनन्तवीर्य और विद्यानन्दी का अनुसरण करने का प्रयत्न किया गया है । इतने महान टीका ग्रन्थ का निर्माण करने पर भी प्रभाचन्द्र ने निम्न पद्य में अपनी लघुता ही प्रकट की है । और लिखा है कि न मुझमें वैसा ज्ञान ही हैं और न सरस्वती ने ही कोई वर प्रदान किया है । तथा इस ग्रन्थ के निर्माण में किसी में वाचनिक सहायता भी नहीं मिल सकी है। बोधो में न तथा विधोऽस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः । साहायञ्च न कस्यचिद्वचनतोऽप्यस्ति प्रबन्धोदये || प्रमेय कमलमार्तण्ड की रचना के बाद टीकाकार प्रभाचन्द्र के मानस में जो नवीन नवीन युक्तियां अवतरित हुई उनका इसमें निर्देश किया गया है। जहां द्विरुक्ति की संभावना हुई, वहां उनका निरूपण नहीं किया किन्तु प्रमेयकमलमार्तण्ड के अवलोकन करने का निर्देश कर दिया है। प्रभाचन्द्र ने अपने स्वतंत्र प्रबन्धों में बहुतसी मौलिक बातें बतलाई हैं, जैसे वैभाषिक सम्मत प्रतीत्य समुत्पाद का खंडन, प्रतिविम्व विचार तम और छाया द्रव्यत्व आदि अनेक प्रकरणों के नाम उल्लेखनीय हैं। न्याय कुमुद की रचना शैली प्रसन्न और मनोमुग्धकर है । प्रभाचन्द्र ने न्याय कुमुद की रचना धारा के जर्यासह देव के राज्य में की है । ( न्याय कु० प्रस्तावना) शब्दाम्भोजभास्कर - श्रवणबेलगोल के शिला लेख नं० ४० (६४) में प्रभाचन्द्र के लिये शब्दाम्भोजभास्कर विशेषण दिया गया है। इससे स्पष्ट है कि प्रमेय कमलमार्तण्ड और न्याय कुमुद जैसे प्रथित तर्क ग्रन्थों के कर्ता प्रभाचन्द्र ही शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्र व्याकरण महान्यास के कर्ता हैं। यह न्यास जैनेन्द्र महावृत्ति के बहुत बाद बनाया गया है । समाप्तः । नमः श्री वर्धमानाय महते देवनन्दिने । प्रभाचन्द्राय गुरवे तस्मै चाभयनन्दिने ॥ इस पद्य में अभयनन्दि को नमस्कार किया गया है । शब्दाम्भोजभास्कर का पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है : इति प्रभाचन्द्र विरचिते शब्दाम्भोजभास्करे जैनेन्द्र व्याकरण महान्यासे तृतीयस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः क्योंकि इसमें महावृत्ति कं शब्दों को आनुपूर्वी से लिया गया है। विशेष परिचय के लिये प्रमेय कमल मार्तण्ड की प्रस्तावना देखें । गद्य कथा कोश - यह कथा प्रबन्ध संस्कृत गद्य में रचा गया है, जिसमें = कथाएं हैं। उसके बाद समाप्ति सूचक पुष्पिका पायो जाती है । प्रभाचन्द्र कथाए बनाई हैं या और अधिक यह अभी निर्णय नहीं हुआ । हो सकता है कि लिपि कर्ता से गल्ती में पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो, और बाद में कुछ कथाएं और लिखकर पुष्पिका वाक्य लिखा गया हो। ग्रन्थ सामने न होने से उसके सम्बन्ध में विशेष कुछ कहना संभव नहीं महापुराण टिप्पण - प्रभाचन्द्र ने पुष्पदन्त के अपभ्रंश भाषा के महापुराण (प्रादि पुराण- उत्तर पुराण ) पर एक टिप्पण लिखा है । यह टिप्पण धारा के राजा जयसिंह के राज्य काल में लिखा गया है । पुष्पदन्त ने अपना महापुराण सन् ६६५ ई० में समाप्त किया था। प्रभाचन्द्र ने उसके बाद उस पर टिप्पण लिखा है । आदि पुराण टिप्पण में धारा और जयसिंह नरेश का कोई उल्लेख नही है । महापुराण के इस टिप्पण की श्लोक संख्या ३३०० बतलाई गई है। आदि पुराण की १६५०, और उत्तर पुराण की १३५० । प्रादि पुराण टिप्पण का आदि अन्त मंगल निम्न प्रकार है : श्रादि मंगल - प्रणम्यवीरं विबुधेन्द्र संस्तुतं निरस्तदोषं वृषभं महोदयम् । पदार्थ संदिग्ध जनप्रबोधकम्, महापुराणस्य करोमि टिप्पणम् ॥ १ पुष्पदन्त ने महापुराण सिद्धार्थ संवत्सर ८८१ में महापुराण शुरू किया और ८८७ सन् ६६५ में समाप्त किया था ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy