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________________ २६८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ था।' जो विनय गुण से सम्पन्न था। वीर कवि विद्वान् और कवि होने के साथ-साथ गुण-ग्राही, न्यायप्रिय और समुदार व्यक्ति था । वह साधुचरित पुरुषों के प्रति विनयी, अनुकम्पावान और धर्मनिष्ठ श्रावक होते हुए भी वह सच्चा वीर पुरुष था । कवि को समाज के विभिन्न वर्गो में जीवन-यापन करने के विविध साधनों का साक्षात अनुभव था । प्राचीन कवियों के प्रसिद्ध ग्रन्थों, अलंकार और काव्य लक्षणों का कवि को तल स्पर्शी ज्ञान था वह कालिदास और बाण की रचनाओं से प्रभावित था। उनकी गुण ग्राहकता का स्पष्ट उल्लेख ग्रन्थ की चतुर्थ सन्धि के अन्त में पाये जाने वाले निम्न पद्य से मिलता है : गुणा णमुतिगुणं गुणिणो न सहंति परगुणे दट्ठे । वल्लहगुणा वि गणिणो विरला कइवीर - सारिच्छा ॥ गुण अथवा निर्गुण पुरुष गुणों को नहीं जानता और गुणीजन दूसरे के गुणों को भी नहीं देखते - उन्हें सह भी नही सकते, परन्तु वीर कवि के सदृश कवि विरले हैं, जो दूसरे के गुणों को समादर की दृष्टि से देखते हैं । वीर केवल कवि ही नही थे, किन्तु भक्ति रस के भी प्रेमी थे । उन्होंने मेघवन में पाषाण का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाया था और उसी मेघवन पट्टण में वर्द्धमान जिनकी विशाल प्रतिमा की प्रतिष्ठा की थी । ग्रन्थ प्रशस्ति में कवि ने मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठा के संवनादि का कोई उल्लेख नही किया । किन्तु इतना तो निश्चित ही है कि जबूसामिचरिउ की रचना से पूर्व मन्दिर निर्माण और प्रतिमा प्रतिष्ठादि का कार्य सम्पन्न हुआ है। रचना कवि की एक मात्र रचना 'जंबूसा मिचरिउ' है । इस ग्रन्थ का दूसरा नाम 'शृंगारवीर महाकाव्य ' है । इसमें अन्तिम केवली जंबू स्वामी के चरित्र का चित्रण किया गया है। इस ग्रन्थ की रचना में कवि को एक वर्ष का समय लग गया था, क्योंकि कवि को राज्यादि कार्य के साथ धर्म, अर्थ और काम की गोष्ठी में भी समय लगाना पड़ता था, प्रतएव ग्रन्थ रचना के लिये अल्प समय मिल पाता था । ग्रन्थ ११ सन्धियों में विभाजित है । चरित्र चित्रण करते हुए कवि ने महाकाव्यों में रस और अलंकारों का सरस वर्णन करके ग्रन्थ को अत्यन्त आकर्षक और पठनीय बना दिया है । कथा पात्र भी उत्तम हैं जिनके जीवन-परिचय से ग्रन्थ की उपयोगिता की अभिवृद्धि हुई है । शृंगार रस, वीर रस, और शान्त रस का यत्र-तत्र विवेचन दिया हुआ है। कहीं-कही शृगार मूलक वीररस है । ग्रन्थ में १. सुहसील सुद्धवसो जग्गरणी सिरि संतुआ भरिया || ६ || जस्स य पमण्ण वयरणा लहुग्गो सुमः सहोयरा निणि । सीहल्ल लक्खा जसइ नामेत्ति विक्वाया ||७|| जाया जस्स मणिट्ठा जिरणवइ पोमावइ पुगो बीया । लीलावइत्ति नइया पच्छिम भज्जा जयादेवी ||८|| पढमकलत्तं गरुहो सतारण कयत्त विडवि पागेहो । विराय गुणमणि निहारणो तरणओ तह नमिचंदो त्ति ॥ ॥ —जबू सामि च० अन्तिम प्रशस्ति २. सो जयउ कई वीरां वीरजिरणदस्स कारिय जेण । पाहारणमय भवणं विरुद्दे से ग मेहवणे ॥ १० ॥ इत्थेवदिणे मेहवरण पट्टणे वड्ढमाण जिरणपडिमा । तेगा वि महाकरणा वीरेण पर्याट्ठिया पवरा ।। ४ - जंबू स्वामि च० प्रशस्ति प्रयत्न करने पर भी 'मेघवन' का कोई विशेष परिचय उपलब्ध नही हुआ, परन्तु 'मेहवन' नाम का कोई स्थान विशेष रहा है जो उस समय धन-धान्यादि से सम्पन्न था।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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