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________________ २५२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ बल्लिगावे में चामेश्वर नाम का मन्दिर बनवाया था और ब्राह्मणों का दान दिया था। -जैन लेख सं० भा २ पृ० २४१-२४५) लेख नं० १९८ दुर्गदेव दुर्गदेव-यह संयमसेन के शिष्य थे, जिनकी बुद्धि षट्दर्शनों के अभ्यास से तर्कमय हो गई थी, जो पंचांग तथा शब्द शास्त्र में कुशल थे, समस्त राजनीति में निपुण थे। वादि गजों के लिये सिंह थे, और सिद्धान्त समुद्र के पार को पहुँचे हुए थे। उन्हीं की आज्ञा से यह ग्रन्थ 'मरण करण्डिका' आदि अनेक प्राचीन ग्रन्थों का उपयोग करके 'रिष्ट सचमुच्चय' ग्रन्थ तीन दिन में रचा गया है । और जो विक्रम संवत् १०८६ की श्रावण शुक्ला एकादशी को मूल नक्षत्र के समय श्री निवास राजा के राज्य काल में कुम्भनगर के शान्तिनाथ मन्दिर में समाप्त हुआ है। ने को देसजई (देशयति) बतलाया है । इससे वे अष्ट मूल गुणसहित श्रावक के बार ों से भूषित अथवा क्षुल्लक साधु के रूप में प्रतिष्ठित हुए जान पड़ते हैं। इन्होंने अपने गुरुओं में संयमसेन और माधवचन्द्र का नामोल्लेख किया है । पर उनके सम्बन्ध में विशेष प्रकाश नहीं डाला। यह ग्रन्थ मृत्यु विज्ञान से सम्बन्ध रखता है । इसमें २६१ प्राकृत गाथाओं में अनेक पिण्डस्थ, पदस्थादि - तथा रूपस्थादि चिन्हों-लक्षणों, घटनाओं एवं निमित्तों के द्वारा मृत्यु को पहले जान लेने की कला का निर्देश है। __ इनकी दूसरी रचना अर्ध काण्ड है, जो १४४ गाथाओं में निबद्ध है, और जो वस्तुओं की मन्दी-तेजी जानने के विज्ञान को लिए हुए एक अच्छा महत्व का ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ मेरे पास था, डॉ० नेमिचन्द्र ज्योतिपप्राचार्य ने मगाया था। वह उनके पास से कहीं खो गया । अतः भण्डारों में उसकी खोज करनी चाहिए। तीसरी रचना 'मन्त्र महोदधि' का उल्लेख वहत टिप्पणि का में-'मन्त्र महोदधि प्रा० दिगंबर श्री दुर्गदेव कृत गा० ३६" रूप से मिलता है महाकवि पुष्पदन्त कवि पुष्पदन्त अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् कवि थे। उन्होंने उत्तरपुराण के अन्त में अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है,-सिद्धि विलासिनी के मनोहर दूत, मुग्धादेवी के शरीर से संभूत, निर्धनों और धनियों को एक दष्टि से देखने वाले, सारे जीवों के अकारणमित्र, शब्द सलिल से जिनका काव्य-स्रोत बढ़ा हुआ है, केशव के पत्र, काश्यप गोत्री, सरस्वती विलासी, सूने पड़े हुए घरों और देव कुलिकाओं में रहने वाले, कलि के प्रवल पापपटलों से रहित, वे घरबार, पुत्र-कलत्रहीन, नदियों वापिकाओं और सरोवरों में स्नान करने वाले, पुराने वस्त्र और बल्कल पहिनने वाले, धूल-धूसरित अंग, दुर्जनों के संग से दूर रहने वाले, जमीन पर सोने वाले और अपने ही हाथों को प्रोढ़ने वाले, पण्डित-पण्डित मरण की प्रतीक्षा करने वाले मान्यखेट नगरवासी, मनमें अरहंतदेव का ध्यान १. जो छद्दसण-तक्क-तक्किय यमं पंचंग सद्दागर्म । जोगी सेसमहीस नीति कुमलो वाइब्भ कंठीरवो। जो सिद्धंत मपारती (णी) रसुणिही तीरे वि पारंगओ, सो देवो सिरि संजमाइ मुरिणवो आमी इह भूतले ॥२५७ संजामो इह तस्म चारु चरियो पारणं बुधोयं मई, सीसो देस जई संवोहण परो वीसेरण-बुद्धागमो। णामेणं सिरि दुगदेव-विइओ वागीसरा यन्नओ, तेरणेदं रदयं विमुद्ध मइणा सत्थं महत्थं फुडं ॥२५८ X X X संवच्छर इग महसे बोलीणं णवय सीइ-संजुत्ते (१०८६) सावण-सुक्के यारसि दियहम्मि मूल रिक्वम्मि ॥२६० सिरि कुभायर रदए लच्छिरिणवास-रिणवइ-रज्जम्मि । सिरि संतिणाह भवणे मुशिभवियस्स उभे रम्मे (?) ॥२६१
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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