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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य प्रज्जज्जसेण गुणगण समूह संधारि-अजियसेण गुरु । भवणगुरु जस्स गुरु सो राप्रो गोम्मटो जयऊ ॥३३॥ यह अजितसेन अपने समय के प्रसिद्ध प्राचार्य थे। चामुण्डराय का पुत्र जिनदेवन भी इनका शिप्य था। उसने सन् ६६५ ई० में श्रवणबेलगोल में एक जिन मन्दिर बनवाया था' । प्रस्तुत अजितमेनाचायं प्रसिद्ध कवि रन्न' भा गुरु थे। गंगवंशी राजा मारसिह बड़ वार प्रोर जिनधर्म भक्त थे। इन्होंने राष्ट्रकट नरेश कृष्ण ततीय के लिये गर्जरदेश को विजय किया, विन्ध्यपर्वत की तली में रहने वाले किराता के समूह का जीता, मान्यखेट में कृष्णराज की सेना की रक्षा की, दन्द्रगज चतुर्थ का अभिषेक कराया। और भी अनेक राजानों को विजित किया। अनेक यद्ध जीते, और चेर, चोड, पाण्ड्य, पल्लव नरेशां को परास्त किया। जैन धर्म का पालन किया । अनेक जिनमन्दिर बनवाये और मन्दिरों को दान दिया। मार्गमह ने ६६१ ई० से ६७ ई० तक राज्य किया है। इनके धर्म महाराजाधिराज. गंगचडामणि, गंगविद्याधर, गगकन्दपं ओर गंगवज प्रादि विरुद पाये जाते है। और अन्त में राज्य का परित्याग कर अजितगेन गुरु के समीप सन् ६७४ ई० में बकापुर में समाधि पूर्वक शरीर का परित्याग किया। अजित सेनाचार्य का समय ई० सन् ६६० (वि० स० १०१७) है । जितसेन के शिष्य कनकसेन द्वितीय थे। नागनन्दी सूरस्थ गण के मुनि श्रीनन्दि भट्टारक के प्रशिप्य और विनयनन्दि सिद्धान्त भट्टारक के शिष्य थे। इनके पाद प्रक्षालन पूर्वक कुक्कनूर ३० में स्थित अपनी जागीर मे ३०० मन्तर प्रमाण कृप्य भूमि, कोपण में यादव वंश में समुत्पन्न महा सामन्त शङ्कर गण्डरस द्वारा निर्मापित जयधीर जिनालय को नित्य प्रति की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये दान में दी गई थी। यह लेख अकाल वर्ष कन्नरदेव (राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय) के राज्य में रक्ताक्षि संवत्सर एवं शक संवत् ८८७ सन् ६६४ ईस्वी में लिखा गया था। इससे नागनन्दी का समय सन् ९६४ है। -जैनिज्म इन साउथ इंडिया पृ० ४२६ गोल्लाचार्य मल संघान्तर्गत नन्दिगण से प्रमत देशीयगण के प्रसिद्ध आचार्य थे, और गोल्लाचार्य नाम से ख्यात थे। यह गृहस्थ अवस्था में पहले गोल्लदेश के अधिपति (गजा) थे। और नलचन्दिल नाम के राजवंश में उत्पन्न हा थे। उन्होंने किसी कारणवश संसार से भयभीत हो, राज्य का परित्याग कर जिनदीक्षा ले ली थी। और तपश्चरण द्वारा प्रात्म-साधना में तत्पर थे। वे श्रमण अवस्था में अच्छे तपस्वी, और शुद्धरत्नत्रय के धारक थे। सिद्धान्तशास्त्ररूपी समद्र की तरंगों के समूह से जिन्होंने पापों को धो डाला था। इनके शिष्य काल्य योगी थे। इनका समय संभवतः दशवीं शताब्दी है। १. इत्याद्य द्ध मुनीन्द्रसन्ततिनिधी श्रीमूलमधे नतो। जाते नन्दिगण-प्रभेदविलमद्देशीगणे विश्रते। गोल्लाचार्य इति प्रसिद्ध-मुनिपोऽभूद्गोल्लदेशाधिपः । पूर्व के न च हेतुना भवभिया दीक्षां गृहीतस्मुधी :।। -जनलेखसंग्रह भा०१ ले० नं० ४० पृ० २५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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