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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २३७ पंक्तियाँ और ३७ श्लोक हैं । अन्तिम पंक्ति छोटी है जो बाद में जोड़ी गई है। यह लेख धर्म, सस्कृति और काव्य की दृष्टि से बड़े महत्व का है । और उपयोगी है । इस प्रशस्ति लेख के लेखक रविकीति है, जो सस्कृत भापा के अच्छे विद्वान और कवि थे। वे काव्य योजना में प्रवीण और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने कविता के क्षेत्र में कालिदास और भारवि की कीति प्राप्त की थी। इस लेख में हमें केवल रवि कीति की प्रतिभा का ही परिचय नही मिलता किन्तु उक्त दोनों कवियों के काल की अन्तिम सीमा भी सुनिश्चित हो जाती है। यह लेख शक स० ५५६ (सन् ६३४ ई०) सातवीं शताब्दी के दक्षिण भारत के राजनैतिक इतिहास पर अच्छा प्रकाश डालता है। रविकोति चालूक्य पूलकेशी सत्याश्रय (पश्चिमी चालुक्य पूलकेशो द्वितीय) के राज्य में थे। यह गजा उनका संरक्षक या पोपक था। पुलकेशी स्वयं शूरवीर, रण कुशल योद्धा था, प्रशस्ति में उसकं पगक्रम, युद्ध गचालन, साहम और सैनिकों की गतिविधियों का इतना सुन्दर और व्यवस्थित वर्णन दिया है जो देखते ही बनता है। मगलेश अपने भाई के पूत्र पुलकेशी से ईर्षा करता था-उसकी कीति से जलता था और अपने पुत्र को राजा बनाना चाहता था। पर न समान प्रतापी पुलकेशी के सामने उसकी शक्ति कु ठित हो गई-वह काम न पा सकी, और राज्यलक्ष्मी ने पुलकेशी को वरण किया। पुलकेशी ने पाप्यायिक, गोविन्द, गंग, प्रलूप, मौर्य, लाट, मालव, गुर्जर, कलिग, कोसल, पल्लव, चोल, निन्यानवे हजार गांव वाले महाराष्ट्र, पिप्टपुर का दुर्ग, कुणालद्वीप, वनवामी अोर पश्चिम समुद्र की पुरी को जीत लिया था। और राजा हर्प वर्द्धन को रोक कर नर्मदा के किनारे अपना मेनिक केन्द्र स्थापित किया था। प्रशस्ति में पुलकेशी के प्रताप और तेज का बहुत सुन्दर वर्णन दिया है और बतलाया है कि पुलकेशी ने अपनी सेना के कारण पल्लव राजाओं को इतना आतंकित और भयभीत कर दिया था, जिसमे वे अपनी राजधानी की चहार दीवारी के भीतर ही निवास करते थे-बाहर निकलने का उनका साहस नहीं होता था। चोल देश पर विजय प्राप्त करने के लिये उसने कावेरी नदी पार की तथा दक्षिण भारत के अन्य प्रदेशों को अपने आश्रित किया। रवि कीर्ति का समय शक सं० ५५६ (सन् ६३४) सातवी शताब्दी है। चन्द्रदेवाचार्य चन्द्रदेव नन्दि राज्य के यशस्वी, प्रभावयुक्त, शील-सदाचार-सम्पन्न प्राचार्य कल्वप्प नामक ऋपि पर्वत पर व्रतपाल दिवगत हुए थे। यद्यपि यह लेग्व काल रहित है। इसमें गम्वत् का उल्लेख नही है फिर भी इमे लगभग शक सं० ६२२ का माना जाता है । जो सन् ७०० होता है । इनका समय विक्रम की ८वी शताब्दी होना चाहिए। -जैन लेख सं० भा० १ पृ० १४ ले० ३४ (८४) दूसरे चन्द्रदेव को कल्याणी के प्रसिद्ध गवंश राजामल्लिकार्जुन ने शक सं० ११२७ रक्ताक्षि संवत्सर द्वितीय पौष सुदि बुधवार मकर संक्रान्ति के दिन उक्त गुरु चन्द्रदेव भट को जलधारा पूर्वक दान दिया गया था। इनका समय सन् १२०५ ई० है। (जैन लेख स० भा ३ पृ० २६४) प्रार्यसेन मूलसंघ वरमेनगण और पोगरि गच्छ के विद्वान आचार्य थे। और ब्रह्ममेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं द्वारा सेवित थे। आर्यसेन के शिप्य महासेन थे। शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चाकि १. म विजयता रविकीति: कविताधित कालिदास भारवि कीतिः। --मेगति लेख २ श्रीमूलसंघे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि। गच्छषु तुच्छऽपि पोगर्य भिक्खे संस्तूपमानो मुनिग> मेनः ।। तस्यायसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महामेन महा मुनीन्द्रः ।। -जैन लेख म० भा०२ पृ० २२८
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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