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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ २९६ साधारण ख्याति पाई है। पौन्न तो बाण की बराबरी करते हैं। नयसेन ने अपने धर्मामृत के ३६ वें पद्य के निम्न वाक्य द्वारा 'प्रसगन देसि पोन्नत महोत्तन तिवेत्त वेडगुं,, - प्रसग और पौन्न का नामोल्लेख किया है । पौन्न ने स्वयं शान्तिनाथ पुराण (६५० ई०) में कन्नड़ कविता में अपने को — 'कन्नडक वितेयोल श्रसगम्, वाक्य द्वारा असग के समान होना बतलाया है। राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय ने जिसका दूसरा नाम अकालवर्ष था। इनका राज्य काल शक सं० ८६७ से ८९४, (सन् ६४५ से ६७२) तक था । इसे उभयकवि चक्रवर्ती का सम्मान सूचक पद प्रदान किया था, ऐसा जन्न के यशोधर चरित्र से जो ईस्वी सन् १२०६ में बना है मालूम होता है दुर्गसिंह (सन् १९४५ ) एक पद्य से भी इसका साक्ष्य मिलता है । इसके बनाये हुए शान्तिनाथ पुराण और जिनाक्षर माला ये दो ग्रन्थ उपलब्ध हैं । शान्तिनाथ पुराण, जिसमें सोलहवें तीर्थकर का जीवन वृत्त अंकित है । गद्य-पद्य मय चम्पूकाव्य है । इसके बारह प्रश्वास हैं । इस ग्रन्थ को कवि पुराण चूड़ामणि भी कहते हैं। इसकी विता बहुत ही सुन्दर है । वेंगी देश के कम्मेनाडिका पंगनूर नामक गांव के रहने वाले कौंडिन्य गोत्रोद्भव नागमय्य नामक, जैन ब्राह्मण के मल्लय और पुन्निमय्य नाम के दो पुत्र थे जो बाद में तलपदेव के सेनापति हो गये थे । अपने गुरु जिनचन्द्र देव के प्रति परोक्ष विनय प्रगट करने के लिए कवि पौन्न से शांतिनाथ पुराण बनाने का अनुरोध किया था। उन्हीं के अनुरोध से इस ग्रन्थ की रचना हुई है ऐसा ग्रन्थ प्रशस्ति पर से ज्ञात होता है । जिनाक्षर माला छोटी-सी स्तवनात्मक कविता है । जो वर्णानुक्रम से बनाई गई है । शान्तिनाथ पुराण के अन्त के एक पद्य से मालूम होता है कि इस कवि के बनाये हुए दो ग्रन्थ और हैं। एक राम कथा या भुवनं क रामाभ्युदय और दूसरा गतवाद । यह दूसरा ग्रन्थ संस्कृत में है । कोई-कोई विद्वान इनका बनाया हुआ अलंकार ग्रन्थ भी बतलाते हैं परन्तु ये तीनों ग्रन्थ अनुपलब्ध है । प्रजितपुराण के एक पद्य से ज्ञात होता है कि पम्प, पौन्न और रन्न तीनों कवि कन्नड़ साहित्य के रत्न हैं । पौन्न कवि की उत्तरवर्ती जैन-जैनेतर कवियों ने बहुत प्रशंसा की है। पार्श्व पण्डित ( ई० सन् १२०६ ), नयसेन (१११२), नागवर्म (१९४५) रुद्रभट्ट (१९८०) केशिराज (१२६०) मधुर (१३८०) आदि । इन कवियों के कन्नड़ी ग्रन्थों का हिन्दी अनुवाद होना श्रावश्यक है जिससे हिन्दी भाषी जनता भी उससे लाभ उठा सके। चूंकि कवि ने अपना शान्तिनाथ पुराण सन् ६५० ई० में बनाया था । श्रतः • कवि का समय १०वीं शताब्दी है । कवि रत्न रन्न कवि का जन्म सन् ६४६ ईस्वी में 'मुदुबोल' नाम के ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम जिनवल्लभेन्द्र मौर माता का नाम अव्वलब्बे था । यह जैनधर्म के संपालक वैश्य (वनिया ) थे । प्रार्थिक स्थिति कमजार होने के कारण अपना जीवन निर्वाह चूड़ी बेच कर करते थे । इस कारण वे अपनी संतान की शिक्षा का उचित प्रबन्ध नहीं कर पाते थे । किन्तु रन्न जन्म से ही होनहार, सुभग चारित्रवान और उत्तम प्रकृतियों का धनी था । वह मेधावी और भाग्यशाली था । इसको देखते ही अनजान आगन्तुक भी अपनाने लग जाते थे । वह पड़ोसियों के लिये अत्यन्त प्रिय था । उसके माता-पिता का उस पर अपार प्रेम था । उसकी ग्रहण-धारण की शक्ति और प्रतिभा बाल्यकाल से ही आश्चर्य जनक थी। उसने बाल्यकाल में अपना समय अध्ययन में व्यतीत किया था । कुमार अवस्था में भी उसकी विशेष रुचि अध्ययन की ओर थी। आर्थिक परिस्थिति ठीक न होने पर भी उसने अपनी हिम्मत नहीं हारी । किन्तु वह दृढव्रती रह अपने उद्देश्य की पूर्ति करने के प्रयत्न में संलग्न रहता था । एक दिन वह घर से बंकापुर चला गया। उस समय बंकापुर विद्या का केन्द्र बना हुआ था। वहां कई विद्यालय थे, जिनमें शिक्षा दी जाती थी। वह अजितसेनाचार्य के पास पहुँचा, उनके दर्शन कर उसका मन हर्षित हुआ, उसने उन्हें नमस्कार किया । आचार्य ने पूछा तुम्हारा क्या नाम है और यहाँ किस लिये आये हो । उसने कहा, भगवन् ! मेरा नाम रन्न है और यहां विद्याध्ययन करने की इच्छा से आया हूँ । प्राचार्य ने उसकी रुचि विद्याध्ययन की देख उसकी सब व्यवस्था करा दी । रन्न मेधावी और परिश्रमी छात्र था, उसने बड़ी लगन से वहाँ सिद्धान्त
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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