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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २ नागवर्म प्रथम नागवर्म नाम के दो कवि हो गए है। एक छन्दोम्बुनिधि और कादम्बरी का रचयिता और दूसरा काव्यावलोकन, वस्तु कोश और कर्नाटकभाषा भूषणादि ग्रन्थों का कर्ता । 1 इनमें प्रथम नागवर्म वेंगीदेशके बेंगीपुर नगर के रहने वाले कौंडिय्य गोत्रीय बेन्नामय्य ब्राह्मण का पुत्र था । इसकी माता का नाम पोलकव्ये था। इसने अपने गुरु का नाम श्रजितसेनाचार्य बतलाया है । रक्कसगंगराज जिसने ईसवी सन् ६८४ से ६६६ तक राज्य किया है और जो गंगवंशीय महाराज राचमल्ल का भाई था, इसका पोषक था । चामुंडराय की भी इस पर कृपा रहती थी । कवि होकर भी यह बड़ा वीर और युद्ध विद्या में चतुर था। कनड़ी में इस समय छन्द शास्त्र के जितने ग्रन्थ प्राप्य हैं उनमें इसका 'छन्दोम्बुनिधि' सबसे प्राचीन माना जाता है । यह ग्रन्थ कवि ने अपनी स्त्री को उद्देश्य करके लिखा है । इसका दूसरा ग्रन्थ बाणभट्ट के सुप्रसिद्ध ग्रन्थ ' कादम्बरी' का सुन्दर पद्यमय अनुवाद है । पर ग्रन्थों के मंगलाचरण में न जाने शिवादि की स्तुति क्यों की है ? इसका समय ईसा की १०वीं शताब्दी है । २१४ नागवद्वितीय नागव दूसरा - यह जातिका ब्राह्मण था । इसके पिता का नामदामोदर था । यह चालुक्य नरेश जगदेक मल्लका सेनापति और जन्न कवि का गुरु था । कनड़ी साहित्य में इसकी 'कवितागुणोदय' के नाम से ख्यात है । अभिनव शर्ववर्म, कविकर्णपूर और कविता गुणोदय ये उसकी उपाधियाँ थी । वाणिवल्लभ, जन्न, साल्व यादि कवियों ने इसकी स्तुति की है। इसके बनाये हुए काव्यावलोकन कर्णानाटक भाषा भूषण, और वस्तु कोश ये तीन ग्रन्थ हैं । इसमें पांच अध्याय हैं। पहले भाग में कनड़ी का व्याकरण है । नृपतुंग ( अमोघवर्ष) के अलंकार शास्त्र की अपेक्षा यह विस्तृत है । कर्णाटक भाषा भूषण संस्कृत में भाषा का उत्कृष्ट व्याकरण है । मूलसूत्र और वृत्ति संस्कृत में है । उदाहण कड़ी में । उपलब्ध कनड़ी व्याकरणों में- जो कि संस्कृत सूत्रों में है - यह सबसे पहला और उत्तम व्याकरण है । इसी को आदर्श मान कर सन् १६०४ में भट्टाकलंक (द्वितीय) ने कनड़ी का शब्दानुशासन नामका विशाल व्याकरण संस्कृत में बनाया है । यह व्याकरण मैसूर सरकार की ओर से छप चुका है । वस्तु कोश कनड़ी में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों का अर्थ बतलाने वाला पद्यमय निघण्टु या कोश है । वररुचि, हलायुध, शाश्वत, अमरसिंह आदि के ग्रन्थ देखकर इसकी रचना की गई है । इसका समय ११३६ ई० से ११४९ ईस्वी है । प्राचार्य महासेन यह लाड़ बागड संघ के पूर्णचन्द्र, प्राचार्य जयसेन के प्रशिष्य और गुणाकर सेनसूरि के शिष्य थे । प्राचार्य महासेन सिद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कवि थे, तथा शब्दरूपी ब्रह्म के विचित्र धाम थे । यशस्वियों द्वारा मान्य और सज्जनों में अग्रणी एवं पाप रहित थे और परमार वंशी राजा मुंज के द्वारा पूजित थे। ये सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप की सीमा स्वरूप थे, और भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले बान्धव थे - सूर्य थे । तथा सिन्धुराज के महामात्यपर्पट द्वारा जिनके चरण कमल पूजित थे उन्हीं के अनुरोध से कवि ने प्रद्युम्न चरित की रचना की है । और राजा के अनुचर विवेकवान मधन ने इसे लिखकर कोविद जनों को १. तच्छिष्यो विदिता ग्विलोरुसमयो वादी च वाग्मी कविः शब्दब्रह्मविचित्रधामयशसां मान्यां सतामग्ररणीः । श्रासीत् श्री महासेनसूरिरनघः श्रीमुरं जगजाचितः ॥ सीमा दर्शनबोधप्रत्ततपसां भव्याब्जनीवान्धवः ||३ २. श्री सिन्धुराजस्य महत्तमेन श्री पर्पटेनाचितपादपद्मः । चकार तेनाभिहितः प्रबन्धं स पावनं निष्ठित मङ्गजम्य ॥ प्रद्य ुम्न चरित प्रशारित
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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