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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य २११ प्रकारादि हकारान्ता मंत्राः परमशक्तयः । स्वमंडलगताः ध्येया लोकद्वयफलप्रदाः॥ धर्म रत्नाकर का रचना काल स० १०५५ है ।' अतः तत्त्वानुशासन इससे पूर्ववर्ती रचना है:प्राचार्य अमितगति द्विनोय के उपासकाचार में एक पद्य निम्न प्रकार पाया जाता है: अभ्यस्यमानं बहुधास्थिरत्वं यथति दुर्बोध मयीह शास्त्रम्। शूनं तथा ध्यान मपीतिमत्वा ध्यानं सदाभ्यस्तु मोक्तु कामः ॥ उपासकाचार १०-१११ ध्यान विषय की प्रेरणा करने वाला यह पद्य तत्त्वानुशासन के निम्न पद्य से प्रभावित तथा अनुसरण को लिये हुए है: यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्थैर्य लभतेऽभ्यास वर्तिनाम् ।।८८ इन. अमितगति द्वितीय के दादा गुरु अमितगति ( प्रथम ) द्वारा रचित योगसार प्राभूत १६ वें अधिकार में एक पद्य निम्न प्रकार से उपलब्ध होता है। येन येनैव भावेन युज्यते यंत्रवाहकः। तन्मयस्तत्रतत्रापि विश्वरुपो मणियथा ॥५१ यह पद्य तत्त्वानुशासन के १६१ पद्य के साथ साद श्य रखता है: येन भावेन यद्रपं ध्यायत्यात्मान मात्मवित् । तेन तन्मयतां याति सोपाधिः स्फटिको यथा ॥१६॥ अमितगति प्रथम का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का प्रथम चरण है। द्रव्य संग्रह के टीकाकार ब्रह्मदेव ने तत्त्वानुशासन से (८३-८४) ये दो पद्य ग्रन्थ के नामोल्लेख के साथ उद्धत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का अन्तिम चरण और १२वीं का पूर्वार्ध है। इससे स्पष्ट है कि रामसेन अमितगति प्रथम और ब्रह्मदेव ११ वीं शताब्दी से पूर्ववर्ती हैं। __ तत्त्वानुशासन पर आचार्य अमृतचन्द्र के ग्रन्थों का साहित्यिक अनुसरण एवं प्रभाव परिलक्षित है। तत्त्वार्थसार के ७ वें व पद्यों का तत्त्वानुशासन के ४-५ पद्यों पर स्पष्ट प्रभाव है और साहित्यिक अनुसरण है। इससे तत्त्वानुशासन की रचना अमृतचन्द्राचार्य के बाद हुई है। सप्न तत्त्वों में हेयोपादेय का विभाग करने वाले वे पद्य इस प्रकार हैं: उपादेय तया जीवो जीवोहेयतयोदितः । हेयस्यास्मिन्नुपादान हेतुत्त्वेनाऽ स्त्रवः स्मृतः ॥७ संवरो निर्जरा हेय-हान-हेतु-तयोदितौ । हेय-प्रहाणरूपेण मोक्षो जीवस्य दशितः ॥ तत्त्वार्थसार बन्धो निवन्धनं चास्य हेयमित्युपदर्शितम् । हेयस्याऽ शेष दुःखस्य यस्माद् बीजमिदं द्वयम् ।। ४ मोक्षस्तत्कारणं चैतदुपादेय मुदाहृतम् । उपादेयं सुखं यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥ तत्त्वानुशासन । निश्चय और व्यवहार के भेद से मोक्षमार्ग के दो भेदों का प्ररूपक तथा उनमें साध्य-साध्यनता-विषयक पद्य भी साहित्यिक अनुसरण को लिये हुए पाया जाता है । १. बाणेन्द्रिय व्योम सोम-मिते सवत्सरे शुभे । (१०५५) अन्योऽय सिद्धता यातिः सबलीकरहाटके ।। -धर्मग्लाकर प्रश०
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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