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________________ नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य देवभट्टारकानुजेन' वाक्य द्वारा महेन्द्र देव का उक्त विशेषण दिया है जिससे वे वादियों के विजेता थे। बहुत सम्भव है कि प्रस्तुत महेन्द्रदेव उनके विद्यागुरु रहे हों । अन्य तोन गुरुया के सम्बन्ध में कुछ ज्ञात नहीं होता। सभव है उस समय के साधु संघ में उक्त नाम के तीन विद्वान भी रामसेन के गुरु रहे हो। रचना-प्रस्तुत तत्त्वानुशासन ग्रन्थ २५८ सस्कृत पद्यों का महत्वपूर्ण रचना है। इसमें अध्यात्म विषय का प्रतिपादन सुन्दर है वह भाष। ओर विषय दाना हा दृष्टियों से महत्वपूर्ण है । ग्रन्थ को भाषा जहाँ सरलप्राजल एवं सहज वोध गम्य है, वहां वह विषय प्रतिपादनकी कुशलता को लिये हुए है। ग्रन्थ कारने अध्यात्मजैसे नीरस कठोर और दुर्बोध विषय को इतना सरल एव मुगम बना दिया है कि पाठक का मन कभी ऊब नही सकता। उसमें अध्यात्म रस की फुट जो अकित है। ग्रन्थ में स्वानुभूति से अनुप्राणित रामसेन को काव्य शक्ति चमक उठी है वह अपने विषय की एक सुन्दर व्यस्थित कृति है। जिससे पाठक का हृदय प्रात्म-विभोर हो उठता है । ग्रन्थ में हेय और उपादेय तत्त्व का स्वरूप बतलाते हए बन्ध और बन्ध के हेतों को हेय तथा मोक्ष और मोक्ष के कारणों को उपादेय बतलाया है। कर्म बन्ध के कारण मिथ्यादर्शन मिथ्याज्ञान और मिथ्या चारित्र को हेय और दुरगति एवं दःख वाहेत बतलाया है क्योंकि उनमे मोह-या ममकार तथा अहंकार की उत्पत्ति आदि संसार दु:ख के कारणों का संचय होता है इसीसे ऐसा कहा है। और सम्यकदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र को उपादेय और सुख का कारण बतलाया। क्योकि इन तीनो को धर्म बतलाया है।' आत्मा का मोह क्षोभ से रहित परिणाम धर्म है । और इन तीनों की एकता मोक्ष का मार्ग है। इसी से इन्हें उपादेय कहा है। कर्म बन्ध की निवृत्ति के लिये ध्यान की प्रावश्यकता बतलाते हुए ध्यान, ध्यान की सामग्री और उसके भेदों आदि का सुन्दर स्वरूप निर्दिष्ट किया है। एकाग्रचित्त से पंच परमेष्ठियों के स्वरूप का चिन्तन स्वाध्याय है आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है कि जो अरहंत को द्रव्यत्व गुणत्व और पर्यायत्व के द्वारा जानता है वह प्रात्मा को जानता है और उसका मोह क्षीण हो जाता है। स्वाध्याय से ध्यान का अभ्यास करे अोर स्वाध्याय से ध्यान का. क्योंकि ध्यान और स्वाध्याय मे परमात्मा का प्रकाश होता है (तत्त्वा०(८१) । ध्यान का विशद विवेचन करते हुये ध्यान की महत्ता और उसका फल बतलाया है ध्यान को निर्जरा का हेतु और संवर का कारण बतलाया है। ध्यान की स्थिरता के लिये मन और इन्द्रियों का दमन पावश्यक है। इन्द्रिय की प्रवृत्ति में मन ही कारण है। मन की सामर्थ्य से इन्द्रियां अपना कार्य करती है, अतएव मन का जोतना जरूरी है । ज्ञान वैराग्य रूप रज्ज (रस्सी) से उन्मार्गगामी इन्द्रिय रूप अश्वों (घोड़ों) को वश में किया जाता है, क्योंकि इन्द्रियोंका असंयम आपत्ति का कारण है और उनका जीतना या वश में करना सम्पदा का मार्ग है । अतएव उनका नियमन जरूरी है। मन का व्यापार नष्ट होने पर इन्द्रियों को प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। जिस तरह वृक्ष की जड़ के विनष्ट होने पर पत्ते भी नप्ट हो जाते हैं। मन को जीतने के लिये स्वाध्याय में प्रवृत्त होना चाहिए। और अनुत्प्रेक्षामों (भावनामों) का चिन्तवन करना चाहिए। इससे मन को स्थिर करने में सहायता मिलती है। इस तरह यह अपने विषय को महत्व पूर्ण कृति हैं, इसका मनन करने से आत्मज्ञान की वृद्धि होती है। स्वाध्याय प्रेमियों के लिये अत्यन्त उपयोगी है। १. सदृष्टि ज्ञान वृत्तानिधर्म धर्मेश्वगः विदुः । रत्नकरण्ड थावकाचार २. तद् ध्यान निर्जरा-हेतु सवरम्य च कारणम् ( तत्त्वानुशासन ५६ ३. इन्द्रिायणा प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च मनः प्रभुः । मनएव जयेत्तस्माज्जिते तस्मिन् जितेन्द्रियः ॥७६।।तत्त्वानु० ४. ज्ञान-वैराग्य-रज्जुभ्यां नित्यमुत्पथवर्तिनः : जित चित्तेन शक्यन्ते धतु मिन्द्रियवाजिनः ।। तत्वा० ७७ ५. रट्टे मणवावारे विसएसुण जति इंदिया सव्वे । छिण्णे तरुम्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हुसि ।। ६६आराधनासार
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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