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________________ २०६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ हेलोल्लुप्तं महामोहतमस्तोमं जयत्यदः । प्रकाशयज्जगत्तत्त्वमनेकान्तमयं मह ॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में तो उसे परमागम का बीज अथवा प्राण वतलाया है, और जन्मान्ध मनुष्यों के हस्ति विधान का निषेध कर समस्त नय विलासों के विरोध को नष्ट करने वाले अनेकान्त को नमस्कार किया है। टीकात्रों के में भी उन्होंने स्याद्वाद को और उसको दप्टि को स्पष्ट करते हए तत्त्व का निरूपण किया है। इससे उनकी अनेकान्त दृष्टि का महत्व प्रतिभापित होता है। इनकी कुन्दकुन्दाचार्य के प्राभूतत्रय-समयसार-प्रवचनसार अोर पंचास्ति काय-इन तीनों ग्रन्थों की टीकाएं बडी मार्मिक और हृदय स्पर्शी और उनको हार्दको प्रकट करने वाली हैं। समयासार की टीका में तो उसके अन्तः रहस्य का केवल उद्घाटन ही नहीं किया गया किन्तु उस पर समयानुसार-कलश की रचना कर वस्ततः उस पर कलशारोहण भी किया है । अध्यात्म के जिस बीज को प्राचार्य कुन्दकुन्द ने बोया, और उसे पल्लवित, पूष्पित एवं फलित करने का श्रेय आचार्य अमृत चन्द्र को ही प्राप्त है। टोकाओं का अध्ययन कर अध्यात्म रसिक विद्वान दात तले अंगुली दबाकर रह जाते हैं । टीकात्रों की भाषा प्रौढ़, प्रभावशाली अोर गतिशील है । और विषय की स्पष्ट विवेचक हैं। अध्यात्म दृष्टि से लिखी गई ये टीकाएं म्वसमय परसमय को बोधक है ; और अध्येता के लिए महत्वपूर्ण विषयों की परिचायक हैं इनमें निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से वस्तु तत्व का विचार किया गया है सम्यग्दृष्टि जीव वस्तुतत्व का परिज्ञान करने के लिए दोनों नयों का अवलम्बन लेता है परन्तु श्रद्ध में वह प्रशद्ध नय के पालम्बन को हेय समझता है, यही कारण है कि वस्तु तत्व का यथार्थ परिज्ञान होने पर अगद्ध नय का पालम्बन स्वयं छूट जाता है इसी से कुन्दकुन्दाचार्य ने उभय नयों के पालम्बन से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन किया है। - अापकी इन तीनों टीकामों के अतिरिक्त आपकी दो कृतियां और भी हैं। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय ओर तत्त्वार्थसार । इन दोनों में भी उनके वैशिष्टय की स्पष्ट छाप है। पुरुषार्थ सिद्धयुपाय २२६ श्लोकों का प्रसादगुणोपेत एक स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसका-दूसरा नाम जिन वचन रहस्य कोश है । ग्रन्थ के नाम से ही उसका विषय स्पष्ट है इसमें श्रावक धर्म के वर्णन के साथ सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्याकचरित्र का सुन्दर कथन दिया हुआ है । जहां इस ग्रथ के नाम में वैशिष्ट्य है वहां पाद्यन्त में भी वैशिष्टय है। नथ के प्रादि में निश्चय नय और व्यवहार नय की चर्चा है तो अन्त में रत्नत्रय को मोक्ष का उपाय बतलाया गया है यह कथन श्रावकाचारों में हैं । पुण्यासवको शुभोपयोग का अपराध बतलाना अमृतचन्द्र को वाणी को विशेषता है। विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान पं० प्राशाधर जी ने अनगार धर्मामृत को टीका में प्राचार्य अमृतचन्द्र का ठक्कूर विशेषण के साथ उल्लेख किया है-'एतदनुसारेणव ठक्कुरोऽपीदमपाठीत्-लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । (पृ० १६०) एतच्च विस्तरेण ठक्कुरामृनचन्द्रसूरि विरचित समयसारटीकायां द्रष्टव्यम्। पृ०५८८)। ठक्कर या ठाकर शब्द का प्रयोग जागीरदारों और ओहदेदारों के लिये तो व्यवहृत होना था। किन्त कर' शब्द गोत्र का भी वाची है। आज भी जैसवाल आदि जातियों के गोत्रों में प्रयुक्त देखा जाता है। तत्त्वार्थसार-गृद्धपिच्छाचार्य के तत्त्वार्थसूत्र के मार को लिए हुए होने पर भी अपना वैशिष्ट्य रखता है। यह २२६ श्लोकों की रचना होते हुए भी, प्रसाद गुणोपित एक स्वतंत्र ग्रंथ है । जिसमें सम्यदर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का सुन्दर कथन किया है। तत्त्वार्थसार नाम से भी यह ध्वनित होता है कि इसमें तत्त्वार्थ सूत्र प्रतिपादित तत्त्वों का ही सार संगृहीत है । तत्त्वार्थ राजवातिकादि में प्रतिपादित कितनी ही विशिष्ट बातों का इसमें संकलन किया गया है। प्राचार्य अमृतचन्द्र ने इसे मोक्षमार्ग का प्रकाश करने वाला एक प्रमुख दीपक बतलाया है । क्योंकि इसमें युक्ति पागम से सुनिश्चित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र का स्वरूप १. अथ तत्त्वार्थसारोऽयं मोक्ष मार्गकदीपक । -तत्वार्थमार २
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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