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________________ २०४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जीवितावधिकं च । उत्तर गण प्रत्याख्यान मयंतासंयतयोरपि अल्पकालिकं जीविता वधिकं वा।" अर्थात वह प्रत्याख्यान दो प्रकार का है, मूलगण प्रत्याख्यान और उत्तरगण प्रत्याख्यान । उनमें से संयमी मुनियों के मूलगुण प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त के लिए होता है । सयतासयत पचम गुणस्थानवर्ती श्रावक के अणुव्रतों को मूल गुण कहते है । गृहस्थों के मूलगणों का प्रत्याख्यान अल्पकालिक अोर सर्वकालिक दोनों प्रकार का होता है। पक्ष, महीना, छह महीन इत्यादि रूप से भविष्यत्काल की मर्यादा करके जो स्थल हिमा, असत्य, चोरी, मैथुन सेवन और परिग्रह रूप पच पापो को मै नही करूगा, ऐसा संकल्प कर उनका जो त्याग करता है वह जीवितावधिक प्रत्याख्यान है। उत्तर गुण प्रत्याख्यान तो मुनि और गृहस्थ दोनों ही जीवन पर्यन्त तथा अल्पकाल के लिए कर सकते है। गाथा न० ५ की टीका में 'सिद्ध प्राभृन' का उल्लेख किया है ।' ७५३ की गाथा की व्याख्या करते हुए 'नमस्कारपाहुड' ग्रन्थ का उल्लेख किया है। अपराजित सूरि ने अपनी टीका में देवनन्दी (पूज्य पाद) की सर्वार्थसिद्धि तथा अकलंकदेव के तत्त्वार्थ वातिकका भी उपयोग किया है। और उनकी अनेक पक्तियों को उद्धत किया है। अमितगति प्रथम प्रमितगति-माथर संध के विद्वान देवसेन के शिष्य थे। जिन्हें विध्वस्त कामदेव, विपूलशमभूत, कान्तकीति और श्रत समुद्र का पारगामी सुभाषित रत्न सन्दोह की प्रशस्ति में बतलाया गया है। प्रोर इनके शिष्य प्रथम अमितगति योगी को अगेष शास्त्रों का ज्ञाता, महावतों-समितियों के धारकों में अग्रणी, क्रोध रहित, मनिमान्य और बाह्याभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी बतलाया है, जैसा कि-'त्यक्तनि:शेष संग: । वाक्य मे प्रकट है : "विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रत समितिभूतामग्रणीरस्तकोपः । श्रीमान्मान्यो मुनीनाममितगति यतिस्त्यक्तनिशेषसंगः ॥" इस तरह अमित गति द्वितीय ने उनका बहुत गुण गान किया है, उन्हें अलंघ्य महिमालय, विमलसत्ववान रत्नधी, गुणमणि पयोनिधि, बतलाया है। साथ ही धर्म परीक्षा' में 'भासिताखिल पदार्थ समूह :निर्मलः, तथा अाराधना में 'शम-यम-निलयः, प्रदलितमदनः, पदनतसूरि जैसे विशेपणों के साथ स्मरण किया है। जो उनके व्यक्तित्व की महत्ता को प्रकट करते है। इससे वे ज्ञान और चारित्र की एक असाधारण मूर्ति थे। उनका व्यक्तित्व महान था और अनेक प्राचार्यों से पूजित-नमस्कृत एव महामान्य थे। उन्होंने अशेप शास्त्रों का अध्ययन किया था, और उन्होने जो अनुभव प्राप्त किया था, उसी का सार रूप ग्रन्थ योगमार प्राभूत' है। उनकी यह रचना संक्षिप्त, सरस और गम्भीर अर्थ की प्रतिपादक है। 'चू कि अमित गति द्वितीय का रचना समय स० १०५० से १०७३ है। अमित गति प्रथम इनसे दो पीढ़ी पहले है। अतः उसमें से ५० वर्ष कम कर देने पर उनका समय विक्रम की ११ वी शताब्दी का प्रथम चरण जान पड़ता है। - - - १. मिद्ध प्राभूतगदित म्वरूप सिद्धज्ञानमागमभावमिद्धः ॥ (गाथा ५) २. 'नमस्कार प्राभत नामास्ति ग्रन्थः यत्र नय प्रमाणादि निक्षेपादि मुखन नमस्कागं निरूप्यते । (गाथा ७५३) ३. देवा अनेकान्न वर्ष २ किरण ८ १० ४३७ । ४. "आशीविध्वस्त.-कन्तो विपुलशमभृतः श्रीमत: क्लान्तकीतिः । मरेर्या तम्य पार श्रुतलिलनिधेर्देवमनम्य शिष्यः' ।। -मुभा० स०६१५ ५. "भामिनाविलपदार्थ ममूहो निर्मलोमतगतिगणनाथः । वासरो दिनमणे रिव तम्माज्जायतेस्मकमलाकर बोधी ॥३" ६. "जिन समयोनि महनीयोगुगामरिण जलधेम्तदनुमतियः । शमयम निलयो.मितगति सूरिः प्रदलितमदनो पदनतमूरिः ॥" -- -
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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