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________________ नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य २०१ पहाड़ी पर एक वसदि बनवाई थी, जिसका नाम 'शिवमारनवसदि' था। चन्द्रनाथ स्वामी की वदि के निकट एक चट्टान पर कनड़ी में 'शिवमारन वसदि' इतना लेख उत्कीर्ण है जिसका समय सन् ८१० माना जाता है। प्रस्तुत शिवमार द्वितीय अपने पिता श्रीपूरुप की तरह जैन धर्म का समर्थक था। वह समर्थक ही नही किन्तु उसके एक ताम्रपत्र सप्रमाणित होता है कि वह स्वय जैन था । शिवमार का भतीजा विजयादित्य का पुत्र राचमल्ल सत्यवाक्य प्रथम शिवमार के राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था। और वह सन् ८१६ के लगभग गद्दी पर बैठा था। विद्यानन्द ने अपने ग्रन्थों में सत्यवाक्याधिप का उल्लेख किया है। स्थेयाज्जात जयध्वजाप्रतिनिधिः प्रोद्भूतभूरिप्रभुः, प्रध्वस्तारिवल-दुर्नय-द्विषदिभिः सन्नीति-सामर्थ्यतः । सन्मार्ग स्त्रिविधः कुमार्गमथनोर्हन् वीरनाथः श्रिये, शश्वत्संस्तुतिगोचरोऽनघधियणं श्रीसत्यवाक्याधिपः ॥१ प्रोक्तं युक्त्यनुशासन विजयिभिः स्याद्वादमार्गानुगविद्यानन्द बुधरलंकृतमिद श्रीमत्यवाक्याधिपः ।।। -युक्त्यनुशासनालंकार प्रशस्ति। जयन्ति निर्जताशेष सर्वथकान्तनीतयः। सत्यवाक्याधिपाः शश्वविद्यानन्दा जिनेश्वरः ।। -प्रमाण परीक्षा मंगल पद्य विद्यानन्दः स्वशक्त्या कथमपि कथितं सत्यवाक्या प्राप्त परीक्षा १२३ इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्द की रचनाय ८१० मे ८४० के मध्य रची गई है। इन्हीं सब प्राधारो से प० दरबारीलाल जी कोठिया ने भी विद्यानन्द का समय ई. सन् ७७५ से ८४० तक का निश्चित किया है। इससे प्राचार्य विद्यानन्द का समय ईसा की नवमी शताब्दी सुनिश्चित हो जाता है। प्रज्जनन्दि (आर्यनन्दि) तमिल प्रदेश में अज्जनन्दि नाम के प्रभावशाली प्राचार्य हो गए है। उनका व्यक्तित्व महान था। सातवी शताब्दी के उतरार्ध में तमिल प्रदेश में जैन धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध एक भयानक वातावरण उठा। परिणाम स्वरूप वहाँ जैन धर्म का प्रभाव क्षीण हो गया और उसके सम्मान को ठेस पहंची, मे विपम समय में प्रार्थनन्टि मागे पाये। उन्होने समस्त तमिल प्रदेश में भ्रमण कर जैन धर्म के प्रभाव को पुनः स्थापित करने के लिये जगह-जगह जैन तीर्थकरो की मतियां अकित कराई। इसमे प्रज्जनन्दि के साहम और विक्रम का पता चलता है। उन्हें इस कार्य के सम्पन्न कराने में कितने कष्ट उठाने पड़े होगे, यह भुक्तभोगी ही जानता है। परन्तु उनकी आत्मा में जैन धर्म की क्षीणता को देखकर जो टीस उत्पन्न हई उसीके परिणामस्वरूप उन्होंने यह कार्य सम्पन्न कराया। उनका यह कार्य ८वी हवी शताब्दी का है। उनका कार्यक्षेत्र मदुरा, और त्रावणकोर आदिका स्थान रहा है। आर्यनन्दि ने उत्तर प्रारकाट जिले के वल्लीमले की और मदुरा जिले के अन्नमले, ऐवरमले, अलगरमले, १. जैन लेख संग्रह भा० १ पृ० ३२७ २. दक्षिण भारत में जैन धर्म पृ० ८१ ३ गंग वंश में कुछ राजाओं की उपाधि 'मत्य वाक्य थी। इस उपाधि के धारक ई० सन १५ के बाद प्रथम सत्य वाक्य, दूसरा ८७० से १०७, तीसरा सत्य वाक्य ६२०, और चौथा ९७७,
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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