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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ अतः विद्यानन्द (ई०८४०) का अवतरण लेने वाले तथा विद्यानन्द के उत्तरवर्ती अनन्तवीर्य के स्वतःप्रामाण्य भंग का उल्लेख करने वाले अनन्तवीयं का समय ईसा की हवी का उत्तरार्ध या १०वी का पूर्व भाग होना चाहिये। अनन्तवीर्य ने अपनी टीका के प० २४६ में कर्मबन्ध के प्रकरण में 'तदुक्त वाक्य के साथ निम्न श्लोक उद्धृत किया है : एषोऽहं ममकर्मशर्महरतेतद्वन्धनान्यास्रवैः, ते क्रोधादिवशाः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात् । मिथ्याज्ञान कृतात्ततोऽस्मि सततं सम्यकत्ववान सुखतः, दक्षः क्षीणकषाययोगतपसां कतै ति मक्तो यतिः ।। यह श्लोक यशस्तिलकचम्पू के उत्तरार्ध पृ० २४६ में पाया जाता है इसी भाव का एक श्लोक गुणभद्राचार्य के प्रात्मानुशासन में भी उपलब्ध होता है। प्रस्त्यात्मास्तिमितादिबन्धनगतः तदबन्धनान्यास्त्रवैः, ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात। मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित, सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥२४१ इन दोनों श्लोकों के बिम्ब प्रतिबिम्ब भाव ही नहीं किन्तु शब्द रचना भी मिलती जुलती है। इसमे अनन्तवीर्य का ममय सोमदेव के बाद शक सं०८८१ सन् ६५६ ई. के पास-पास होना चाहिये। हम्मच के शिलालेख में अनन्तवीर्य को वादिराज के दादा गुरु श्रीपाल विद्यदेव का सधर्मा लिखा है । वादिराज के दादा गुरु का समय ५० वर्ष मान लिया जाय तो अनन्तवीर्य की स्थिति ९७५ ई. के पास-पास __ इस समय का समर्थन शान्तिमूरि (ई० सन् ६६३-१०४७) और वादिराज (१०१५ ई०) के द्वारा किये अनन्तवीर्य के उल्लेखों से हो जाता है। प्रभाचन्द्र अनन्तवीर्य की उक्तियों को मुन सकते हैं। __डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ने के० वी० पाठक की आलोचना करते हुए अनन्तवीर्य का समय ईसा की ८वीं सदी का पूर्वार्ध बतलाया है । परन्तु वह डा० महेन्द्र कुमार जी को मान्य नहीं है, उनका कहना है कि -अनन्तवीर्य की समयावधि सन् ९५० से १६० तक निश्चित होती है। देवेन्द्र सैद्धान्तिक देवेन्द्रसैद्धान्तिक-मूल संध, देशीयगण पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान त्रैकालयोगी के शिष्य थे५ । इनके विद्यागरु गुणनन्दी थे। जिनके तीन सौ शिष्य थे। उनमें ७२ शिप्य उत्प्कृट कोटि के विद्वान और व्याख्यान पट थे। उनमें प्रसिद्ध मुनि देवेन्द्र थे, जो नय-प्रमाण में निपुण थे। यह चतुर्म ख देव के नाम से भी प्रसिद्ध थे. क्योंकि इन्होंने चारों दिशाओं की ओर मुख करके आठ-पाठ उपवास किये थे। यह बंकापुर के प्राचार्यों के अधिनायक थे। १. जैन लेख म. भ०३ पृ० ७२, २. न्याय कुमुद्रचन्द्र पृ० ७६, ३. जैन दर्शन वर्ष ४ अंक: ४. सिद्धिविनिश्चय प्रस्तावना पृ०८७ ५. श्री मूलमघ-देशीयगण-पुस्तक गच्छतः । जातन्त्रकाल योगीग: क्षीगब्बेग्वि कौस्तुभः ।।३५ नच्चारित्र वधू पुत्रः श्री देवेन्द्र मुनीश्वरः । सिद्धान्तिकाग्रणोस्तम्मै बंकेयो (यामदान्म) दा ।।३६ -जन० ले०सं०भा० २१०१४५ ६. नच्छिष्याम्पिगनाविवेकनिधयशास्त्राब्धि पारङ्गता - म्तेष-कृप्टनमा द्विसप्ततिमिताम्सिद्धान्नशास्त्रार्थक--. व्याख्याने पटवी विचित्र चरिताग्नेगु प्रमिद्धो मुनिः; नानानूननय-प्नमागा निपुणो देवेन्द्र मद्धान्तिकः ।।८ -जैन लेग्व मं० भा० १५० ७२ ७. बकापुर मुनीन्द्रोऽभूद देवेन्द्रो रुन्द्र मद्गुणः। सिद्धान्ताद्यागमार्थ ज्ञो मज्ञानादि गुणान्वितः ।।--जैन लेख सं० भा०२ १०११६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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