SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २ इसी संधि के १५वे कडवक में द्रोपदी के अपमान से क्रुद्ध भीम का और कीचक का परस्पर बाहु युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है : १६४ रण में कुशल भीम और कीचक दोनों एक दूसरे से भिड़ गए। दोनों ही हजारों युवा हाथियों के समान बलवाले थे। दोनों ही पर्वत के बड़े शिखर के समान लम्बे थे। दोनों ही मेघ के समान गर्जना वाले थे। दोनों ने ही अपने अपने प्रोंठ काट रखे थे, उनके मुख क्रोध से तमतमा रहे थे । नेत्र गुजा ( चिरमटी घ घची) के समान लाल हो गए थे। दोनों के वक्षस्थल प्रकाश के समान विशाल और दोनो के भुजदण्ड परिधि के समान प्रचड थे' । कवि ने शरीर की असारता का दिग्दर्शन करते हुए लिखा है कि मानव का यह शरीर कितना घिनावना और शिरानों स्नायुओं से वधा हुआ अस्थियों का एक ढाचा या पोट्टल मात्र है । जो माया और मदरूपी कचरे से सड़ रहा है, मल प ज है, कृमिकीटों से भरा हुआ है, पवित्र गव वाले पदार्थ भी इससे दुर्गन्धित हो जाते हैं, मास र रुधिर से पूर्ण चर्म वृक्ष से घिरा हुआ है - चमड़े की चादर ढका हुआ है, दुर्गन्ध कारक आता की यह पोटली और पक्षियों का भोजन है। कलुपता से भरपूर इस शरीर का कोई भी अंग चंगा नही है । चमड़ी उतार देन पर यह दुष्प्रेक्ष्य हो जाता है, जल बिन्दु तथा सुरधनु के समान अस्थिर और विनश्वर है । ऐसे घृणित शरीर से कौन ज्ञानी राग करेगा ? यह विचार ही ज्ञानी के लिये वैराग्यवर्धक है । तीसरी कृति स्वयंभू छन्द ग्रन्थ है, जो प्रकाशित हो चुका है और जिसका सम्पादन एच. डी. वेलकर ने किया है । त्रिभुवन स्वयंभू ने उन्हे, 'छन्द चूड़ामणि' कहा है। इससे वे छन्द विशेषज्ञ थे, इसका सहज ही आभास हो जाता है । इस ग्रंथ में प्राकृत और अपभ्रंश भाषा के छन्दों का स्वरूप मय उदाहरणों के दिया गया है। इसके अन्तिम अध्याय में गाहा, अडिल्ल, और पद्धडिया आदि स्वोपज्ञ छन्दों के उदाहरण दिये है । उनमें जिनदेव की स्तुति है । ग्रन्थ के अन्त कोई परिचयात्मक प्रशस्ति नही है । इस ग्रन्थ का सबसे पुरातन उल्लेख जयकीर्ति ने अपने छन्दोनुशासन में किया है। जिसमें स्वयभू के नन्दिनी छन्द का उल्लेख है। इससे स्पष्ट है कि स्वयंभू के छन्द ग्रन्थ का १०वी शताब्दी में प्रचार हो गया था । जयकीति का समय वित्रम की दशमी शताब्दी है । जयकीर्ति कन्नड प्रान्त के निवासी और दिगम्बर जैन धर्म के अनुयायी थे । स्वयभू छन्द ग्रन्थ में अपने ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थ कर्ताओ के भी उदाहरण दिये है । ' वम्मह तिलअ' के उदाहरण में ( ६ – ४२ में ) पउमचरिउ की ६५वी सन्धि का पहला पद्य दिया है'। 'रणावली' के उदाहरण में (६-७४) में ७७वी सन्धि के १३वे कडवक का अन्तिम पद्य है । इस तरह यह छद ग्रन्थ महत्वपूर्ण है । त्रिभुवनस्वयंभू ने, जो स्वयंभू का लघुपुत्र था उसने अपने पिता के पउमचरिउ, हरिवशपुराण और पंचमी चरित को सम्हाला था, उनका समय १० वी शताब्दी का पूर्वार्ध है । इसका अलग परिचय नही लिखा । स्वयभू देव ने 'पंचमीचरिउ' ग्रन्थ भी बनाया था । किन्तु वह अनुपलब्ध है । पउमचरिउ में लिखा है कि १ तो भिडिवि परोधयरण कुमल, विष्णिवि गायगाय महस्स-बल । विणि वि गिरि त ग सिंग मिहर, विष्णिवि जल हरव गहिर गिर । विणि विट्टो रुद्द वयण, विष्णि वि गजाहल सम-णयरग । विणि वि हयल रुि वच्छथल, विष्णु वि परिहोम - भुज- जुगल | २. देखो, रिट्ठाणे मिचरिउ ५४ - ११ ३ तुम्ह पअ कमलमूले अम्ह जिग दुक्ख भावतवियाइ । दुरु ढल्लियाई जिरणवर ज जारणमु त करेज्जासु ॥ ३८ - जिणरणामे छिदेवि मोहजाल, उप्पज्जइ देवल्लमामि सालु । जिणरणामे कम्मर हिलेवि, मोक्यग्गे पइसिअ सुह लहेवि ॥ ४४ ४. जयकीर्ति ने अपने छन्द ग्रन्थ में स्वयभू के नन्दिनी छन्द का उल्लेख किया है । तथा पद्म पद्मनिधिजंतो जरी, स्वयभुदेवेश मते तु नन्दिनी ||२२|| - रिट्ठमिचरिउ २८ - १५ ती ५. हणवंत रणे परिवेद्विज्जई गिसियरेहि । णं गयणयले बालदिवायरु जलहरेहि || ६. सुरवर डामरु विणु दट्ठ जाम जगकयइ । अण्णु कहि महु चुक्कइ एवणाइ सिहि जंपइ ।।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy