SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य १८७ महावीराचार्य (गणितसार के कर्ता) महावीराचार्य-राष्ट्रकूट वंशी राजा अमोघवर्ष (प्रथम) के समकालीन थे। उन्होंने अपने गणितमार के प्रारम्भ में अमोघवर्ष के दीक्षा लेकर तपस्वी बन जाने पर उनके तपस्वी जीवन का उल्लेख किया है। प्रथम पदा में अमोघवर्ष को प्राणी रूपी सस्य समूह का सन्तुष्ट, निरोनि न निरवग्रह करने वाला प्रारम्बाट हितेपी बतनागा है। यहां गजा के ईति निवारण अोर अनावृष्टिरूप विपत्ति के निवारण के साथ-साथ सब प्राणिया के प्रति अभय पौर राग-द्वेष रहित उपेक्षा वत्ति का उल्लेख है। स्वेष्ट हितेतिणा वाक्य गे मष्ट है कि ते यात्म कल्याण गयण हो गए थे। दूसरे पद्य में उनके पापरूपी शत्रुओं का उनकी चित्तवृति रूप तपोज्वाना में भस्म होने का उख है। राजा अपने शत्रयों को क्रोधाग्नि में भम्म करता है, उन्हों। काम क्रोधादि अन्तरग गरयों को कपाय रहित चित्तवत्ति से नष्ट कर दिया था। अतएव वे प्रवन्ध्य कोप हो गए थे। तोगरे पद्य में उनके समस्त जगत को वशी. भूत करने, किन्तु स्वयं किमी के वशीभूत न होने मे अपूर्व मकरध्वज कहा है। चौथे पद्य में उनको एक पिकाभजन' पदवी की सार्थकता सिद्ध की है। राजमंडल को वश करने के अतिरिक्त यहां पाटन नपन्या वद्धि-द्वारा ससार चक्र परिभ्रमण का क्षय करने का उल्लेख है। पाचवं पद्य में उनकी विद्या प्राप्ति र मर्यादाम्रो का वज्रवेदिका द्वारा उनकी ज्ञानवृद्धि और महानता के प्रनिगालन का उल्लेख अवित किया गया 'रत्न गर्न' विगण से उनके दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप रत्नत्रय का भाव प्रकट किया है। उनमें 'पयाग्यान चारित्र के जलधि' विशेपण द्वारा उनके पूर्ण मुनि पोर उत्कृष्ट ध्यानी होने का स्पष्ट मकेत है। क्या कि यथाख्यान चाल जैन सिद्धान्त को विशिष्ट मज्ञा है, जो मूनि सफल चारित्र द्वारा भावविशुद्ध में कपाया का उपशमत गाक्षाण कर देता है वह यथाख्यात चारित्र का धारी होता है । अन्तिम पद्य में उनके एकान्त को छोड़कर स्याद्वादन्याय का अवलम्बन लेने का स्पष्ट उल्लेख है । ऐसे नृपतुग के शासन की वृद्धि की प्राशा को गई है। प्रीणितः प्राणिसस्यौधो निरीति निवग्रहः । श्रीमतामोघवर्षेण येन स्वेष्ट हितैषिणा ॥१ पापरूपाः परा यस्य चित्तवृत्तिहविर्भ जि । भस्मसाद्धावमीयस्तेऽवनध्यकोपोऽभवत्ततः ॥२ वशीकुर्वन् जगत्सर्व स्वयं नानु वशः परैः। नाभिभूतः प्रभुस्तस्मादपूर्वमकरध्वजः ॥३ यो विक्रमक्रमाक्रांतचकिचकृतक्रियः । चक्रिकाभजनो नाम्ना चक्रिका भजनोऽजसा ॥४ यो विद्यानद्यधिष्ठानों मर्यादावनवेदिकः । रत्नगर्भो यथाख्यातचारित्रजलधिमहान् ।।५ विध्वस्तकान्तपक्षस्य स्याद्वादन्यायवाग्निः । देवस्य नपतं गस्य वर्वतां तस्य शासनम् ॥६ महावीराचार्य ने ग्रन्थ '. प्रारम्भ में गणित की प्रगसा करते हए लिखा है कि लकिका, वदिक योन सामायिक जो जो व्यापार है उन सब में गणित सख्यान का उपयोग है। काम शास्त्र, अपंगास्त्र, गान्धव शास्त्र. नाटय शास्त्र, पाकशास्त्र, आयुर्वेदिक और वस्तु विद्या एवछन्द अनकार, काव्य तक व्याकरण यादि कनायो समस्त गुणों में गणित अत्यन्त उपयोगी है। सूर्य आदि ग्रहो की गति को शान करने, ग्रहण में ग्रहों गति, प्रश्न अर्थात दिक देश काल को जानने तथा चन्द्रमा के परिलेख में, द्वीपो गमुद्र', और पर्वता का सख्या, व्यारा और परिधि पाताल लोक, मध्यलोक ज्योतिर्लोक, स्वर्ग नरक, थेणिवद्ध भवनों, सगाभवनों ओर गम्दाकार मन्दिरको प्रमाण गणित की सहायता से ही जाने जा सकते है। प्राणियों के सस्थान, उनकी आयु, यात्रा प्रोर सहिता आदि से सम्बन्ध रखने वाले सभी विषय गणित से ही ज्ञात होते हैं। ग्रन्थकार ने लिखा है कि तीर्थकर और उनकी शिप्य प्रशिप्यादि की प्रसिद्ध गुरु परम्परा गे माये हा
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy