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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ केश्यग्निं केशी विषं केशो विति रोदसी। केशी विश्वं स्वईशे केशीदे ज्योति रुज्यते ।। (ऋग्वेद १०-१३६-१) केशी अग्नि जल तथा स्वर्ण और पथ्वी को धारण करता है, केशी समस्त विश्व तत्त्वों के दर्शन कराता है । केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवल ज्ञानी) कहलाता है। केशो की यह स्तुति वातरशना मुनियों के कथन में की गई है। जिससे स्पष्ट है कि केशी वातरशना मुनियों में प्रधान थे। केशी का अर्थ केशवाला जटाधारी होता है सिंह भी अपनी केशर (मायाल) के कारण केशरी कहलाता है। ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि और भागवत पुराण में उल्लिखित वातरशना श्रमण एवं उनके अधिनायक ऋषभ की साधनाओं की तुलना दृष्टव्य है क्योंकि दोनो एक ही सम्प्रदाय के वाचक हैं । वैदिक ऋपि वसे त्यागा पौर तपस्वी नहीं थे, जैसे वातरशना मुनि थे। वे गृहस्थ थे, यज्ञ यज्ञादि विधाना में आस्था रखते थे, और अपनी लौकिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए तथा धन इत्यादि सम्पत्ति के लिए इन्द्रादि देवताओं का आह्वान करते थे, किन्तु वातरशना मुनिअन्तर्वाह्य ग्रन्थियों के त्यागो, शरीर से निमोहो, परीषहजयो और कठोर तपस्वी थे, वे शरीर से निस्पृही, वन कदरानों, गुफाम्रो, पीर वृक्षों के तले निवास करते थे। श्रमण संस्कृति वेदों से प्राचीन है, क्योंकि वेदों में तीन तीर्थकरों का-ऋषभदेव, अजित नाथ और नेमिनाथ का-उल्लेख है । वेदां में ऋग्वेद सबसे प्राचीन माना जाता है, उसमें वातरशना मुनियों में भ्रष्ठ ऋषभदेव का उल्लेख होने से जैन धर्म की प्राचीन परम्परा पर महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। यद्यपि वेदां के रचनाकाल के सम्बन्ध मतभेद पाया जाता है। कुछ विद्वान उन्हें ईस्वी सन् से १००० वर्ष पूर्व की रचना मानते है और कुछ पोर वाद की मानते है। यदि वेदों का रचना ईस्वी सन् से १५०० वर्ष भी पूर्व मानी जाय तो भी श्रमण सस्कृति प्राचीन ठहरती है। जैन कला में ऋषभ देव की अनेक प्राचीन मूर्तियाँ जटाधारी मिलती है। प्राचार्य यति वपभ ने तिलोय पण्णत्ति में लिखा है कि उस गंगा कट के ऊपर जटा मकूट से शोभित आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाए हैं। उन प्रतिमाओं का मानों अभिषेक करने के लिए ही गगा उन प्रतिमाओं के ऊपर अवतीणं हई है। जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट है। मादि जिण पडिमानो जड़मउडसेहरिल्लायो। पडिवोवरम्मि गगा अभिसित्तु मणा व पडदि ॥ रविषेण ने पद्मचरित (३-२८८) में-"वातोद्धता जटास्तस्य रेजुराकुल मूर्तयः।" और पुन्नाट सघी जिनसेन ने हरि वश पुराण (६-२०४) में “स प्रलम्ब जटाभार भ्राजिष्णु" रूप से उल्लेखित किया है । तथा अपभ्रंश भाषा के सकमाल चरित्र मे भी निम्न रूप उल्लेख पाया जाता है: "पढमु जिणवरु णविविभावेण । जड-मउड विहूसिउ विसह मयणारि णासणु । अमरासुर-णर-थ्य चलणु। सत्ततत्त्व णवपयत्थ णवणयहि पयासण लोयालोय पयासयरु जसुउप्पण्णउ णाणु । सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अक्खय-सोक्ख णिहाण ।।" जटा-केश-केशर सब एक ही अर्थ के वाचक है 'जटा सटा केशरयोः' इति मोदिनी। इस सब कथन पर से उक्त प्रर्थ की पुष्टि हाती है । केशी पोर ऋषभ एक ही है, क्योंकि ऋग्वेद की एक ऋचा में दोनों का एक साथ उल्लेख हुमा है और वह इस प्रकार है: ककर्दवे वृषभो युक्त मासीद प्रवाचीत् सारथिरस्स केशी। दुर्युक्तस्य द्रवतःसहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मुद्गलानीम् ।। (ऋग्वेद १०-१०२, ६) १. भवगत पुराण ५-६, २८-३१ २. Indian Philosophiy vol. I p. 287 -- --- - --------
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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