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________________ नवमी और दशवी शगब्दी के आचार्य १८५ वेताली आदि उन्दो का उपयोग किया गया। वविना प्रशाना। प्रागग्मय अतकार सहित हे, उममें मुभापितो की कमी नही हे । प्रार कान्य । गणो मे गाने । जिनदत्तचरित-भी उनकी ति बालाया जाना है। वर गरका का काव्य गन्ध ।। जिसमें जिनदत्त का जीवन परिचय प्रक्ति है। सार जो माणिक चन्द्र गन्धमाता में मल रूप प्रमाणित चर है। शाकटायन शाकटायन (पाल्यकोति)-यापनीय मघ के आचार्यये। गापन य संघ का मायागरात कल दिगम्बरो से मिलता था। वनग्न रहन पर ध्यताम्बर प्रागम को सादर कदपट से देखते ।।दाकटापन यति। ने तो स्त्रीमक्ति पार के बलभक्ति नाम दो प्रकरण भी लिख है। जो प्रकाशित सानो । नक। बाविक नाम पाल्यकीति था। परन्न शाकगगन व्याकरण के कर्ता होने के कारण गाकटायन नाम से एमि होगा। वादि गजम् रिने अपने पार्श्वनाथ चरित में उनका निम्न दाब्दो स्मरण किया कतरत्या तस्य सा शक्तिः पाल्यकीर्तमहौजसः । श्रीपद भरण यस्य शाब्दिकान्कुरले जनान ।। इमने बताया कि उम महातेजस्वी पाल्यकान का शकिा का क्या नणन किया जाय, जिमका श्रा' पद श्रवण ही लोगों को शाब्दिक या व्याकरण कर देता है। शपटापन को तालिटोय 'प्राचार्य लिखा है । जिगवा गर्थ त य होना ।पाणिनि ५-३-६७क अनुसार देशीय शब्द तुत्यता का वाचक । चिन्तामाटाताकता यावारता उता 'गकलज्ञान साम्राज्य पदमाप्तवान् कहा। शाकटायन की 'नमोघवत्ति नाम की एक बापज्ञटीका हे । उसका प्रारम्भ भीममा ज्याति 'अादि मगलाचरण में होता है। वादिगज मुनि ने इसी गगलाचरण । के 'श्री' पद को लक्ष्य करणे यह बाग हहै कि पात्यकीति (शाकटायन) के व्याकरण प्रारम्भ करने पर लाग वैयाकरण हो जाते है। इसका नाम शब्दानुगागन हे । शाकटायन नाम बाद को प्रतित हुआ है। शाक्टायन की अमाघवृत्ति मे, आवश्यक, छेद सूत्र, नियुक्ति कालिक सूत्र प्रादि ग्रन्थो का उल्लेग किया है। उससे जान पटता है कि यापनं.य सघमे श्वेताम्बर ग्रन्थाके पठन-पाठन का प्रचार था। पराजित सरि ने तो दशवकालिक पर टीका भी लिखी थी। अमाधवत्ति भ 'उपमवगप्त व्याख्यातार' क का शाकटायन ते सर्व प्राचा िो गवा बडा व्याग्याना बतलाया है। सभव हे ये सर्वगप्त मनि वही हो जिनके चरणो में बैठकर साराधना का शिवाय ने सत्र प्रार को अच्छी तरह समझा था। शाकटायन या पाल्यकीति की तीन ग्ननाए उपलब्ध है । शब्दानुगामन का मूल पाठ, उसकी अमाघवत्ति और स्त्रीमुक्ति वलिभक्ति प्रकरण । राजशेखर ने अपनी काव्यमीमासा ने पाल्यकीति के मतका उल्नख करते हए लिखा है कि- 'यथा तथा वास्तु वस्तूनो रूप वक्त प्रकृतिविरोपायनात रसपत्ता । तथा च यमर्थ रक्त स्तोति त विरक्तो विनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रादास्ते इति पाल्यकीनि ।” दसग ज्ञात हाता है कि पात्यकोति को प्रार भी कोई रचना रही है। शाकटायन के शब्दानुशासन पर सात टीकाएँ लिखी गई - १ अमोघवृति, स्वय पाल्यकीनि द्वारा २ शाकटायन न्यास-प्रभाचन्द्र कृत न्यास ३ चिन्तामणिटीका यक्ष वर्माकृत' १ तम्याति महती वृत्ति महृत्येय लघीयमी। मम्पूर्ण लक्षणावृतिर्वक्ष्यते यक्षवर्मग्णा ।।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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