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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्थ १७५ उनका समस्त संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के नेतृत्व में दक्षिणापथ के पून्नाट देश में गया ।' प्रतएव दक्षिणापथ का यह पुन्नाट कर्णाटक ही है। कन्नड साहित्य में भी पून्नाट राज्य के उल्लेख मिलते हैं। भूगोलवेत्ता टालेमी ने 'पौन्नट' नाम से इसका उल्लेख किया है। इस देश के मुनि मघ का नाम 'पुन्नाट' सघ था। संधों के नाम प्रायः देशों और अन्य स्थानों के नामों से पड़े हैं। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं० १९४ में, जो शक सवत ६२२ के लगभग का है एक 'कित्तर' नाम के संघका उल्लेख है। कित्तर पुन्नाट की राजधानी थी, जो इम ममय मैमूर के 'हैग्गडे वन्कोटे ताल्लुके में हैं। जिनसेनाचार्य की एक मात्रकृति 'हरिवश पुगण' हे । इसमें हग्विण की एक शाखा यादव कुल और उसमें उत्पन्न हए दो शलाका पुरुषों का चरित्र विशेष रूप में वर्णित है। बाईसव तीर्थकर नेमिनाथ और दूसरे नव में नारायण श्रीकृष्ण का । ये दोनों परम्पर में चचेरे भाई । जिनमें से एक ने अपने विवाह के अवसर पर पशुओं की रक्षा का निमित्त पाकर सन्यास ले लिया था। और दूसरे ने कोरब-पाण्डव-युद्ध में अपना बल-कौशल दिखलाया। एक ने आध्यात्मिक उत्कर्ष का आदर्श उपस्थित किया तो दूसरे ने नातिक लीला का दृश्य । एक ने निवृत्ति परायण मार्ग को प्रशस्त किया तो दूसरे ने प्रवृत्ति को प्रश्रय दिया। इस तरह हरिवशपुराण में महा भारत का कथानक सम्मिलित पाया जाता है। ग्रन्थ का कथाभाग अत्यन्त रोचक है। भगगन नेमिनाथ के वैर ग्य का वर्णन पढ़कर प्रत्येक मानवका हृदय सांसारिक मोह-ममता से विमुख हो जाता है। और जूल या राजीमतो के परित्याग पर पाठकों के नेत्रों से जहां सहानुभूति की प्रथधाग प्रवाहित होती है वहा उसके आदर्श सतीत्व पर जन मानस में उसके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न होती है। प्राचार्य जिनसेन ने ग्रन्थ के छयासठ सर्गों में नेमिनाथ और कृष्ण के चरित के साथ प्रसंगवश धार्मिक सिद्धान्तों का सुन्दर वर्णन किया है। लोक का वर्णन अोर शलाका पुरुषों का चरित प्राचार्य यतिवृषभ की तिलोय पण्णत्ती से अनुप्राणित है। प्रसगवश कवि ने महाकाव्यों के विपय वर्णनानुसार ग्राम, नगर, देश, पत्तन. खेट. मटन पर्वत, नदी अरण्य आदि के कथन के साथ शृंगारादि रसों और उपमादि अलकारों, ऋतु व्यावर्णनों, और सन्दर सुभाषितों से भूषित किया है। रचना प्रौढ़, भाषा प्रांजल और प्रसादादि गुणों से अलंकृत है। ___ ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के आदि में अपने से पूर्ववर्ती अनेक विद्धानों का स्मरण किया है। कुछ विद्वानों की रचनाओं का भी उल्लेख किया है। जिन विद्वानो का स्मरण किया है उनके नाम इस प्रकार है: (१) समन्तभद्र (२) सिद्धमेन (३) देवनन्दी, (४) वज्रसूरि (५) महासेन (६) रविषेण (७) जटासिंह नन्दि, (८) शान्तिपेण, (६) विशेषवादि (१०) कुमारमेन (११) वीरसेन, और १२ जिनसेन इन सब विद्वानों के परिचय यथास्थान दिया गया है, पाठक वहां देखे । इसी कारण उसे यहाँ नही लिखा। ग्रन्थकर्ता की प्रविच्छिन्न गुरुपरम्परा हरिवंश पुराण के अन्तिम छयासठव सर्ग में भगवान महावीर से लेकर लोहाचार्य तक की वही प्राचार्य परम्परा दी है जो तिलोय पण्णत्ती धवला जयधवला और श्रुतावतार आदि ग्रन्थों में मिलती है। ६२ वर्ष में तीन केवली गौतम गणधर, सुधर्म स्वामी और जम्बू, १०० वर्ष में पांच श्रुत केवली- विष्णु (नदि), नन्दि मित्र अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाह, १८३ वर्ग में ग्यारह अग दश पूर्व के पाठी-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयसेन सिद्धार्थ सेन, धतिसेन, विजयमेन, बुद्धिल्ल गगदेव, धर्मसेन,-२२० वर्ष में पांच ग्यारह अगधारी-नक्षत्र, जयपाल पाण्ड, ध्रवसेन और कंस, और फिर ११८ वर्ष में-सुभद्र जयभद्र, यशोबाहु और लोहाचार्य ये चार प्राचारांगधारी हए। वीर निर्वाण से ६८३ वर्ष बाद तक की श्रुताचार्य परम्परा के बाद निम्न परम्परा चली विनयधर, श्र तिगुप्त, ऋषिगुप्त, शिवगुप्त, (जिन्होंने अपने गुणों से अहंद्वलि पद प्राप्त किया), मन्दरार्य १. अनेन सह संघो ऽपि समस्तो गुरु वाक्यतः। दक्षिणापथ देशस्थ पन्नाट विषयं ययौ ।-हरिषेण कथा कोश
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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