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________________ नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य १७१ ने अपने को गणित, ज्योतिष, न्याय, व्याकरण और प्रमाण शास्त्रों में निपुण, तथा सिद्धान्त एवं छन्द शास्त्र का ज्ञाता बतलाया है । - प्राचार्य जिनसेन ने उन्हें वादि मुख्य, लोकवित, वाग्मी, और कवि के अतिरिक्त श्रुतकेवली के तुल्य बतलाया है और लिखा है कि - 'उनकी सर्वार्थगामिनी प्रज्ञा को देख कर बुद्धिमानों को सर्वज्ञ को सत्ता में कोई शंका न ही रही थी । ५ सिद्धान्त का उन्हें तलस्पर्शी पाण्डित्य प्राप्त था । सिद्धान्त समुद्र के जल धोई हुई अपनी शुद्ध बुद्धि से वे प्रत्येक बुद्धों के साथ स्पर्धा करते थे । पुन्नाट संघीय जिनसेन ने उन्हें कवियों का चक्रवर्ती और निर्दोष कीर्ति वाला बतलाया है । जिनसेन के शिष्य गुणभद्रने तमाम वादियों को त्रस्त करने वाला और उनके शरीर को ज्ञान और चारित्र की सामग्री से बना हुआ कह है। इससे स्पष्ट है कि वीरसेन अपने समय के महान विद्वान थे । उन्होंने चित्रकूट में जाकर एलाचार्य से सिद्धान्त ग्रन्थों का अध्ययन किया था । पश्चात् वे गुरु की अनुज्ञा प्राप्त कर वाट ग्राम आये, और वहां मानतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे । वहां उन्हें बप्पदेव की व्याख्या प्रज्ञप्ति नाम की टीका प्राप्त हुई। इस टीका के अध्ययन से वीरसेन ने यह अनुभव किया कि इसमें सिद्धान्त के अनेक विषयों का विवेचन स्खलित है-छूट गया है और अनेक स्थलों पर सैद्धान्तिक विषयों का स्फोटन अपेक्षित है । छठे खण्ड पर कोई टीका नहीं लिखी गई । अतएव एक वृहत्टीका के निर्माण की आवश्यकता ऐसा विचार कर उन्होंने धवला और जय धवला टीका लिखी । ७ धवला टीका - यह षट् खण्डागम के प्राद्य पांच खण्डों की सबसे महत्वपूर्ण टीका है । टीका प्रमेय बहुल है । टीका होने पर भी यह एक स्वतंत्र सिद्धान्त ग्रंथ है इसमें टीका की शैलीगत विशेषताएं है ही, पर विषय विवेचन चन्द्रसेन और आर्यनन्दी नाम के दो आचारों का नामोल्नेव किया है, जो आचार्य वीरमेन के गुरु- प्रगुरु थे । इन दोनों उल्लेखों से स्पष्ट है कि पंचस्तूपान्वय की परम्परा उस समय चल रही थी, और वह बहुत प्राचीन काल से प्रसार में आ रही थी । पंचस्तूपान्वय के संस्थापक अदबनी थे, जिन्होंने युग प्रतिक्रमणों के समन पण नदी के किनारे विविधि संघों की स्थापना की थी । पंचस्तूप काय के आचार्य गुहनन्दी का उल्लेख पहाड़पुर के ताम्रपत्र में पाया जाता है। जिसमें गुप्त संवत् १५६ मन् ४७८ में नाथ शर्मा ब्राह्मण के द्वारा गुनन्दी के बिहार में अर्हन्तों की पूजा के लिए ग्रामों और अर्शफियों के देने का उल्लेख है । (एपिग्राफिया इंडिका भा २० पेज ५६ ) १. सिद्धान्त छंद - जोइसु - वायरण प्रमाण सत्थरिणउए । - धवला प्रशस्ति २. लोकवित्त्वं कवित्वं च स्थितं भट्टारके द्वयं । वाग्मिता वाग्मिनो यस्य वाचा वाचम्पतेरपि ।। ५६ -प्रादि पुराण ३. यस्य नैसर्गिककी प्रज्ञां दृष्टवा सर्वार्थगामिनी । जाताः सर्वज्ञसम्दावे निरारेका मनीषिणः ॥ ४. प्रसिद्धसिद्ध सिद्धान्तवाधिवार्धीतशुद्धधीः । सार्द्धं प्रत्येक बुद्धयः स्पर्धते धीद्धबुद्धिभिः । जयध० प्र० २३ ५. जितात्मपरलोकस्य कवीनां चक्रवर्तिनः । - जय धवला प्र० २१ वीरसेन गुरुः कीर्तिरकलंका बभासते ।। ३६ हरिवंश पु० ६. तत्रवित्रासिता शेष प्रवादि मदवारणः । वीरसेनाग्ररणी वीरसेन भट्टारको बभौ ।। ३ ज्ञानचारित्र सामग्नी मग्रहीदिवविग्रहम् ।। ४ ।। उत्तर पुराण प्र० ७. आगत्य चित्रकूटात्ततः सभगवान्गुरोरनुज्ञानात् । वाटग्रामे चात्राऽऽनतेन्द्र कृत जिनगहे स्थित्वा ।। १७६ ( इन्द्रनन्दि श्रुता ० )
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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