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________________ १३४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ मानतुंग सूरि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं। भक्तामरस्तोत्र और भयहर स्तोत्र । इनमें से प्रथम रचना संस्कृत के वसन्त तिलका छन्द में रची गई है । इस स्तोत्र में उसका आदि पद 'भक्तामर' होने से इसका यह नाम हो गया है। इसी तरह कल्याण मन्दिर पोर विषापहार स्तोत्र भी अपने उक्त आदि पद के कारण कल्याण मन्दिर और विषापहार नामों से ख्यात हैं। भक्तामर स्तोत्र में ४८ पद्य हैं। प्रत्येक पद्य में काव्यत्व रहने के कारण ये ४८ पद्य काव्य कहलाते हैं। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ४४ पद्य ही माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि अशोक वक्ष, सिंहासन, छत्रत्रय गौर तमर इन चार प्रातिहायर्या के बोधक पद्यों को तो ग्रहण कर लिया है। किन्तु पप्पवप्टि, भामण्डल, दुन्दुभि और दिव्यध्वनि इन चार प्रतिहार्यों के ज्ञापक पद्यों को निकाल दिया है। किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय की कुछ पाण्डुलिपियों में श्वेताम्बर मम्प्रदाय द्वारा निष्कासित और प्रतिहार्य सम्बोधक चार नये पद्य और जोड़ दिये हैं। इस कारण पद्यों की कुल संख्या ५२ हो गई है। जो ठीक नही है। वास्तव में इस स्तोत्र में ४८ ही पद्य हैं, जो मुद्रित और हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में मिलते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय में भक्तामर स्तोत्र के पठन-पाठन का खूब प्रचार है। इस स्तवन में आदि ब्रह्मा आदिनाथ को स्तुति की गई है। इसीलिए इसका नाम आदिनाथ स्तोत्र प्रचलित है। कवि अपनी नम्रता दिखाते हुये कहता है कि-'हे प्रभो ! अल्पज्ञ ओर बहुश्रु तज्ञ विद्वानों द्वारा हंसी का पात्र होने पर ही तुम्हारी भक्ति ही मुझे मुखर बनाती है। वसन्त में कोकिल स्वयं नहीं बोलना चाहती, प्रत्युत आम्रमंजरी ही उसे बलात् कृजने का निमन्त्रण देती है यथा अल्प श्रुतं श्रुतवतां परिहासघाम, त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् । यत्को फिलः किल मधौ मधुरं विरौति तच्चारुचूतकलिकानिकरक हेतुः ।। ६ प्रागे मानतुगाचार्य कहते हैं-कि हे जगत के भूषण ! हे जीवों के नाथ ! आपके यथार्थ गुणों से प्रापका स्तवन करते हये भक्त यदि आपके समान हो जाय तो इसमें कोई पाश्चर्य नहीं है ऐसा होना ही चाहिये। स्वामी का यह कर्तव्य है कि वह अपने सेवक को समान बना ले। नहीं तो उस स्वामी से क्या लाभ है जो अपने ग्राश्रितों को अपने वैभव में अपने समान नहीं बना लेता। ___ कवि अपने आराध्य देव की जितेन्द्रियता का चित्रण करते हुए कहता है कि-प्रलयकाल की वायु से बड़ेकोपर्वत चलायमान हो जाते हैं पर सुमेरु पर्वत जरा भी चलायमान नहीं होता। इसी प्रकार देवांगनाओं के सून्दर लावण्यको देखकर ऋपि-मूनि देव-दानव प्रादि के चित्त चलायमान हो जाते हैं, पर आपका चित्त रंचमात्र भी विकार यक्त नहीं होता। अतः आप इन्द्रियविजयी होने से महान वोर हैं। चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्नीतं मनागपि मनो न विका कल्पान्तकालमरुता चलिता चलेन कि मन्दराद्रिशिखरंचलितं कदाचित ।। १५ कवि आराध्य देव का महत्व ख्यापित करते हए कहता है कि जो आपके इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके मत्त हाथी, सिह, वनाग्नि, साँप, युद्ध, समुद्र, जलोदर और बंधन प्रादि से उत्पन्न हुया भय नष्ट हो जाता है मापके भक्त को वध बन्धन जन्य कष्ट नही सहन करना पड़ता। बड़ी से बड़ी बेड़ियां ओर विपत्तियां भी नष्ट हो जाती हैं। मत्त द्वि पेन्द्रमृगराज दवानलाहि संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् । तस्याशुनाशमुपयाति भयंभियेव यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥ ४७ इम स्तोत्र की रचना इतनी लोकप्रिय रही है कि उसके प्रत्येक पद्य के प्राद्य या अन्तिम चरण को लेकर समस्या पूात्मक स्त्रोत रचे जाते रहे हैं । इस स्तोत्र की महत्ता के सम्बन्ध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं । और अनेक १. नात्यद्भुतं भवन भूषण ! भृननाथ ! भृतगुण विभवन्तमभिष्टुवन्तः । तल्या भवन्ति भवतोननु तेन कि वा, भूत्याश्रितं यदह नात्मसमं करोति ॥
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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