SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य ११७ स्वर्गापवर्गसुखमाप्तु मनोभिरायः जैनेन्द्र शासनवरामृतसारभूता। सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्त नामा तत्त्वार्थ वृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या ।। जो स्वर्ग और मोक्ष-सुख के इच्छुक है, वे जिनेन्द्र शासन रूपी उत्कृष्ट अमृत में सारभूत ओर सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि इस नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थ वृत्ति को निरन्तर मन पूर्वक धारण करं। वे उसकी महत्ता बतलाते हुए कहते हैं : तत्त्वार्थवत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वा : अण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या। हस्ते कृतं परमसिद्धिसुखामृतं तैर्मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम् ।। सब पदार्थो के जानकार जो इस तत्त्वार्थ वृत्ति को धर्म भक्ति से सुनते हैं, और पढ़ते हैं मानो उन्होंने परम सिद्ध सुख रूपी अमत को अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र के सुख के विषय में तो कहना ही क्या है ? इस कारण इस वृत्ति का नाम 'सर्वार्थसिद्धि' मार्थक है। रचना शैली चुकि सूत्र का विषय तत्त्वार्थ है, अत वृत्तिकार ने जीव, अजीव, प्रास्रव, बंध संवर निर्जरा ओर मोक्ष रूप सात तत्त्वों का महत्त्वपूर्ण विवेचन किया है। टीकाकार ने इसे वृत्ति कहा है। जिसमें सूत्रों के पदों का प्राश्रय लेकर प्रत्येक पद की विवेचना की जाती है उसे वत्ति कहते हैं। वृत्ति का यह लक्षण सर्वार्थ सिद्धि में संघटित है। इस में सूत्र के प्रायः सभी पदों का व्याख्यान किया गया है। उदाहरण के लिये प्रथम अध्याय के दूसरे सूत्र में 'तत्त्वार्थ' पद रखा है। इसका विशद विवेचन दर्शनान्तरों का निर्देश करते हुए किया है । इससे पूज्यपाद की रचना शैली का सहज ही प्राभाम हो जाता है। उन्होंने सूत्रगत प्रत्येक पद का विचार किया है और सत्रपाठ में जब प्रागम से विरोध दिखाई देता है, वहां सूत्र पाठ की रक्षा करते हुए उन्होंने उसकी सङ्गति विठलाने का प्रयत्न किया है। टोका में उनकी कुशलता का सर्वत्र दर्शन होता है। पूज्यपाद एक प्रामाणिक टीकाकार हैं। उनकी शैली गतिशील एवं प्रवाहयुक्त है। वृत्तिकार ने वृत्ति लिखते समय भाषा सौष्ठव का बराबर ध्यान रखा है, और पागम परम्परा का भी पूरा निर्वाह किया है। प्रथम अध्याय के सातवें आठवें सूत्र की वृत्ति लिखते हुए उन्होंने षट्खण्डागम के सूत्रों का संस्कृत अनुवाद दे दिया है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य देवनंदि पट्खण्डागम के अभ्यासी थे, उसके रहस्य से परिचित थे। इस कारण उसमें विशिष्ट कथन किया गया है। वे बहुश्रत विद्वान थे। उन्होंने वस्ततत्त्व का दढ़ना से प्रतिपादन करने का साहस किया है। उनकी शैली विशद् अोर विषय स्पर्शी है। वत्ति लिखते समय जो छोटे-बड़े पाठ भेद मिले। उनकी उन्होंने यथास्थान चर्चा की है, और उनका उल्लेख किया है। कि पूज्यपाद के सामने कुछ टीका ग्रन्थ अवश्य थे। इसी से उन्होंने अपरेषां क्षिप्रनि:सत इति पाठः" का उल्लेख करते हए बतलाया है कि अन्य अचार्यों के मत से क्षिप्र के बाद अनिःसृत के स्थान पर निःसत पाठ है। देवनन्दि ने तत्त्वार्थसूत्र की बहुमूल्य टीका बनाकर पाठकों को ज्ञान की विपुल सामग्री प्रस्तुत की है। समाधितन्त्र-दूसरी कृति समाधि तंत्र है । इसकी श्लोक संख्या १०५ है, श्रवण वेलगोल के ४०वें शिलालेख में इसका नाम समाधि शतक दिया है । यह एक प्राध्यात्मिक ग्रन्थ है । इसमें अध्यात्म विषय का बड़ी ही सुन्दरता से प्रतिपादन किया गया है। अध्यात्म से गढ़ विषय का इतना सरल और सरस कथन सूत्ररूप में करना प्रपनी खास विशेषता रखता है। विषय के प्रतिपादन की शैली सुन्दर और हृदयग्राहिणी है। भाषा सौष्ठव देखते ही बनता है। पद्य रचना प्रसादादि गुणों से विशिष्ट है। जान पड़ता है, देवनन्दी ने अध्यात्म शास दोहन करके जो अमृत निकाला, वह इसमें भरा हुआ है। इसके अध्ययन से चित्त प्रसन्न हो जाता है और उससे अपनी भूल का बोध होता चला जाता है। ग्रन्थकार ने स्वयं लिखा है कि मैंने इसका निर्माण आगम, युक्ति और अन्तःकरण की एकाग्रता द्वारा सम्पन्न स्वानुभव के द्वारा किया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रकट है : 17.सत
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy