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________________ सिद्धसेन १०६ का प्रथम चरण है। उद्धृत किया है इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेन पूज्यपाद से भी पूर्ववर्ती हैं । पूज्यपाद का समय ईसा की ५वीं शताब्दी है। प्रतः सिद्धमेन ईसा की ५वी शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं। डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय ने सिद्धसेन के न्यायावतार का सम्पादन किया है। उन्होंने उसके प्राक्कथन पृ. XXU में लिखा है कि-'यह बहुत संभव है कि यह सिद्धमेन गुप्त काल के विद्वान् हों। चन्द्रगुप्त द्वितीय जो विक्रमादित्य के नाम से प्रसिद्ध है, और जिसका समय ३७६ से ४१४ ई० है, यही समय सिद्धसेन दिवाकर का होना संभव है। डा० सा० ने इन्हें यापनीय सम्प्रदाय का विद्वान बतलाया है। न्यायावतार के कर्ता सिद्धसेन इनसे भिन्न और बाद के विद्वान हैं, और वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विद्वान हैं। इनका समय सातवीं शताब्दी है। १. वियोजयति चासुभिर्न च वधेन संयुज्यते शिव च न परोपमर्दपुरुष स्मृतेविद्यते । वधाय नयमभ्युपैति च परान्न निघ्नन्नपि । त्वयाय मति दुर्गम. प्रथम हेतुरुद्योतितः ॥ १६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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