SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ दंसण पाहुड-इसमें सम्यग्दर्शन का स्वरूप और महत्व ३६ गाथाओं द्वारा बतलाया गया है। दूसरी गाथा में बताया है कि धर्म का मूल सम्यग्दर्शन है । अतः सम्यग्दर्शन से हीन पुरुष वन्दना करने के योग्य नहीं है । तीसरी गाथा में कहा है कि जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट है, वह भ्रप्ट ही है, उसे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। सम्यग्दर्शन से रहित प्राणी लाखों करोड़ों वर्षों तक घोर तप करें तो भी उन्हें बोधि लाभ नहीं होता। इत्यादि अनेक तरह से सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी महत्ता बतलाई गई है। चरित्त पाहड-इसमें ४४ गाथाओं द्वारा चारित्र का प्रतिपादन किया गया है। चारित्र के दो भेद हैं-सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण। निःशंकित प्रादि पाठ गुणों से विशिष्ट निर्दोष सम्यक्त्व के पालन करने को सम्यक्त्वा चरण चारित्र कहते हैं। संयमाचरण दो प्रकार का है-सागार और अनगार । सागाराचरण के भेद से ग्यारह प्रतिमाओं के नाम गिनाये हैं। तथा पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को सागार संयमाचरण बतलाया है । पांच अणुव्रत प्रसिद्ध ही हैं, दिशा विदिशा का प्रमाण, अनर्थ दण्ड त्याग ओर भोगोपभोग परिमाण ये तोन गुणव्रत, सामायिक, प्रोषध, अतिथि पूजा और सल्लेखना ये चार शिक्षाव्रत बतलाये हैं। किन्तु तत्त्वार्थ मूत्र में भोगोपभोग परिमाण को शिक्षाव्रतों में गिनाया है और सल्लेखना को अलग रक्खा है। तथा देश विरति नाम का एक गुणव्रत बतलाया है। __अनगार धर्म का कथन करते हुए पांच इंद्रियों का वश करना, पंच महाव्रत धारण करना, पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करना अनगाराचरण है । अहिंसादि व्रतों की पांच पांच भावनाएं बतलाई हैं। सुत्त पाहुड-इसमें २६ गाथाए हैं जिसमें सूत्र की परिभाषा बताते हुए कहा है कि जो प्ररहंत के द्वारा अर्थरूप से भाषित और गणधर द्वारा कथित हो, उसे सूत्र कहते हैं। सूत्र में जो कुछ कहा गया है उसे प्राचार्य परम्परा द्वारा प्रवर्तित मार्ग से जानना चाहिए । जैसे सूत्र (धागे ) से रहित सुई खो जाती है, वैसे ही सूत्र को (आगम को) न जानने वाला मनुष्य भी नष्ट हो जाता है। उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने वाला भी मुनि यदि स्वच्छन्द विचरण करने लगता है तो वह मिथ्यात्व में गिर जाता है। गाथा १० में बतलाया गया है कि नग्न रहना और करपुट में भोजन करना यही एक मोक्षमार्ग है । शेष सब अमार्ग हैं। आगे बतलाया है कि जिस साधु के बाल के अग्रभाग के बराबर भी परिग्रह नहीं है, और पाणिपात्र में भोजन करता है, वही साधु है। इस पाहुड में स्त्री प्रव्रज्या और साधनों के वस्त्र धारण करने का निषेध किया गया है। बोध पाहड में ६२ गाथाओं द्वारा प्रायतन, चैत्यग्रह, जिनप्रतिमा, दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा, ज्ञान, देव, तीर्थ, अर्हन्त और प्रवज्या का स्वरूप बतलाया है। अंतिम गाथाओं में कुन्दकुन्द ने अपने को भद्रेबाहु का शिष्य प्रकट किया है। भाव पाहुड में १६३ गाथाओं द्वारा भाव की महत्ता बतलाते हुए भाव को ही गुण दोषों का कारण बतलाया है और लिखा है कि भाव की विशुद्धि के लिये ही बाह्य परिग्रह का त्याग किया जाता है । जिसका अंतःकरण शुद्ध नहीं है उसका बाह्य त्याग व्यर्थ है। करोड़ों वर्ष पर्यन्त तपस्या करने पर भी भाव रहित को मुक्ति प्राप्त नहीं होती। भाव से ही लिंगी होता है द्रव्य से नहीं। अतः भाव को धारण करना आवश्यक है। भव्यसेन ग्यारह अंग चौदह पूर्वो को पढ़कर भी भाव से मुनि न हो सका। किन्तु शिवभूति ने भाव विशुद्धि के कारण 'तुष मास' शब्द का उच्चारण करते करते केवलज्ञान प्राप्त किया। जो शरीरादि बाह्य परिग्रहों को और माया कषायआदि अन्तरंग परिग्रहों को छोड़कर प्रात्मा में लीन होता है वह लिंगी साधु है। यह पूरा पाहुड ग्रन्थ सदुपदेशों से भरा हुपा है। मोक्ख पाहुड की गाथा संख्या १०६ है । जिसमें प्रात्म द्रव्य का महत्व बतलाते हुए प्रात्मा के तीन भेदों की-परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा की-चर्चा करते हुए बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा के ध्यान की बात कही गई है। पर द्रव्य में रत जीव कर्मों से बंधता है और परद्रव्यसे विरत जीव कर्मों से छूटता है। संक्षेप में बन्ध पोर मोक्ष का यह जिनोपदेश है। इस तरह इस प्राभृत में मोक्ष के कारण रूप से परमात्मा के
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy