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________________ कुन्दकुन्दाचार्य परिज्ञान किया। साथ ही, चाह-दाहरूप-दुःख-दावानल मे झलमित प्रात्मा का अवलोकन कर उनका चित्त परम करुणा से प्रार्द्र हो गया और उनके समुद्धार की कल्याणकारी पावन भागा ने जोर पकडा । मत. उन्होंने ग्व पर के भेद विज्ञानरूप आत्मानुभव के बल में उम आत्मतत्व का रहस्य समझाने एव प्रात्म-स्वरूप का बोध कराने के लिये 'सारत्रय' जैसी महत्वपूर्ण कृतियों का निर्माण किया। और उनमें जीव पार अजीव के मयोग सम्बन्ध में होने वाली विविध परिणतियो का-कर्मादय से प्राप्त विचित्र अवस्थानो का - उल्नेम्व किया और बतलाया कि: - हे आत्मन् ! पर द्रव्य के सयोग से होने वालो परिणतिया तेरी नही है । पोर न तू उनका कर्ता हर्ता है। ये सव राग-द्वेप-मोह रूप विभाव परिणति का फल है। तेरा स्वभाव ज्ञाता द्रष्टा है, पर मे आत्म कल्पना करना तेरा स्वभाव नहीं है । त सच्चिदानन्द है, अपने उस निजानन्द स्वरूप का भोक्ता बन, उस आत्म स्वरूप का भाक्ता बनन के लिये तुझे अपने स्वरूप का परिज्ञान होना आवश्यक है। तभी तेरा अनादि कालीन मिथ्या वासना में छुटकारा हो सकता है। इस प्रात्मा की तीन अवस्थाए अथवा परिणतिया है बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । इनमे में यह प्रात्मा प्रथम अवस्था में इतना रोगी हो गया है कि यह अनादिसे अपनी ज्ञान दर्शनादिम्प यात्मनिधि का भूल रहा है और अचेतन (जड़) शरीरादि पर वस्नुमा में अपने प्रात्मम्बम्प की कल्पना करता हुआ चतुर्गनिरूप मंसार में परिभ्रमणकर असह्य एव घोर वेदना का अनुभव कर रहा है, वह दुःख नहीं महा जाता, किन्तु अपने द्वाग उपाजित कर्म का फल भोगे बिना नही छट मकता, इसीसे उसे विलाप करता हुआ सहता है । जीव की यह प्रथम अवस्था ही ससार दुःख की जनक है, यही वह अज्ञान धारा है जिससे छटकाग मिलते ही ग्रान्मा अपने स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ हो जाता है। प्रात्मा की यह दूसरी अवस्था है जिगे अन्तरात्मा कहते है, वह जात्मज्ञानी होता हैउसे स्व स्वरूप और पररूप का अनुभव होता है । वह स्व-पर के भेद-विज्ञान द्वारा भृली हई उम प्रात्म-निधि का दर्शन पाकर निर्मल आत्म-ममाधि के रस में तन्मय हो जाता है आर मददृष्टि के विमल प्रकाश द्वारा मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है, और अन्तिम परमात्म अवस्था की साधना में तन्मय हुआ अवसर पाकर उस कर्म-शृखला को नष्ट कर देता है- प्रात्म-समाधि रूप चित्त की एकाग्र परिणति स्वरूप ध्यानाग्नि से उसे भरमकर अपनी अनन्त चतुष्टयरूप मात्मनिधि को पा लेता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की देन प्राचार्य कुन्दकुन्द ने जिस आत्मा के वैविध्य की कल्पना को है और उसके स्वरूप का निदर्शन करते हुए उसकी महत्ता एव उसके अन्तिम लक्ष्य प्राप्ति की जो सूचना की है उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाला व्यक्ति अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। प्राचार्य कुन्दकुन्द की उस देन को उनके वाद के प्राचार्या ने अपने-अपने ग्रन्थो में प्रात्मा के वैविध्य की चर्चा की है और बहिरात्म अवस्था को छोड़कर तथा अन्तरात्मा बनकर परमात्म अवस्था के साधन का उल्लेख किया है। इस तरह भारतीय श्रमण परम्परा ने भारत को उस अध्यात्म विद्या का अनुपम आर्दश दिया है। इसीमे श्रमण परम्परा की अनेक महत्वपूर्ण बाते वैदिक परम्परा के ग्रन्थो में पाई जाती है। और वैदिक परम्परा की अनेक रूढि सम्मत बाते श्रमण परम्परा के प्राचार-विचार में समाई हई दृष्टिगोचर होती है। क्योकि दोनों सस्कृतियों के समसामायिक होने के नाते एक दूसरी परम्परा के प्राचार-विचारो का परस्पर में आदान-प्रदान हुअा है। यही कारण है कि प्राचार्य कुन्दकुन्द के प्रायः समान अथवा उससे मिलते जुलते रूप में प्रात्मा के वैविध्य की कल्पना का वह रूप कठोपनिषद के निम्न पद्य में पाया जाता है जिसमें आत्मा के ज्ञानात्मा महदात्मा और शातात्मा ये, तीन भेद किये गये है। यच्छेद्वाःड. मनसी प्राजस्तद्यच्छेज्ज्ञानमात्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छे तद्यच्छेच्छान्त प्रात्मनि ।।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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