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________________ माघनन्दि ७१ के वाद्यविशेष के नाद से बड़ी भारी पूजा की। उसे देख कर धरमेन भट्टारक ने उनका भूतबलि नाम रक्खा । और जिनको भूतों ने पूजा को प्रोर अग्त व्यस्त दन्तपक्ति को दूर कर उनके दांत ममान कर दिये, अतः धरसेन भट्टारक ने दूसरे का नाम पूष्पदन्त रक्खा । पश्चात दूसरे दिन वहां से उन दोनों ने गुरु की आज्ञा से चल कर प्रकलेश्वर (गुजरात) में वकाल बिताया।' धरसेनाचार्य ने दोनों गिप्यों को इस कारण जल्दी वापिस भेज दिया, जिससे उन्हें गुरु के दिवंगत होने पर दुःख न हो। कुछ ममय पश्चात उन्होंने माम्य भाव मे शरीर का परित्याग कर दिया। प्राचार्य धरसेन की एकमात्र कृति 'योनि पाहड' है, जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है। यह ग्रन्थ मेरे देखने में नहीं आया। कहा जाता है कि वह रिसर्च इन्स्टिट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मोजद है। माघनन्दि सिद्धान्ती-नन्दि संघ को पट्टावली में अहंबला के बाद माघनन्दि का उल्लेख किया है और उनका काल २१ वर्ष बतलाया है। जम्बूद्वीप पण्णत्तो के कर्ता पद्मनन्दी ने माघनन्दि का उल्लेख करते हए बतलाया है कि वे गग-द्वप पोर मोह से रहित, श्रुतसागर के पारगामी, मतिप्रगल्भ, तप और सयम से सम्पन्न, लोक में प्रसिद्ध थे। श्रुतमागर पारगामी पद से उन माघनन्दि का उल्लेख ज्ञात होता है जो सिद्धान्तवेदी थे। इनके सम्बन्ध में एक कथानक भी प्रचलित है। कहा जाता है कि माघरन्दि मुनि एक बार चर्या के लिये नगर में गए थे। वहाँ एक कुम्हार की कन्या ने इनसे प्रेम प्रगट किया और वे उसी के साथ रहने लगे। कालान्तर में एक बार संघ में किसी सैद्धान्तिक विपय पर मतभेद उपस्थित हुआ और जब किसी से उसका समाधान नही हो सका, तब सघनायक ने आज्ञा दी कि इसका समाधान माघनन्दि के पास जाकर किया जाय । अतएव साधु माघनन्दि के पास पहुंचे और ज्ञान की व्यवस्था मांगी। तब माघनन्दि ने पूछा 'क्या संघ मुझे अब भी यह सत्कार देता है ? मुनियों ने उत्तर दिया-आपके श्रुतज्ञान का सदैव प्रादर होगा।' यह सुनकर माघनन्दि को पुनः वैराग्य हो गया और वे अपने सुरक्षित रखे हुए पीछी कमंडलु लेकर संघ में आ मिले और प्रायश्चित किया। माघनन्दि ने अपने कुम्हार जीवन के समय कच्चे घड़ों पर थाप देते समय गाते हुए एक ऐतिहासिक स्तुति बनाई थी, जो अनेकान्त में प्रकाशित हो चुकी है। पर वह इन्ही माधनन्दि की कृति है, इसके जानने का कोई प्रामाणिक साधन देखने में नहीं पाया । शिला लेख नं० १२६ में बिना किसी गुरु शिष्य सम्बन्ध के माघनन्दि को प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदी कहा है। यथा नमो नम्रजनानन्दस्यन्दिने माघनन्दिने । जगत्प्रसिद्ध सिद्धान्तवेदिने चित्प्रभेदिने । माघनन्दि नाम के और भी सैद्धान्तिक विद्वान हए हैं। पर वे इनमे पश्चाद्वर्ती हैं, जिनका परिचय प्रागे दिया जायेगा। प्रस्तुत माघनन्दि के शिष्य 'जिनचन्द्र' बतलाए गए हैं। पर उनका कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता। पुष्पदन्त और भूतबली—ये दोनों अर्हबली के शिष्य थे।" दक्षिण भारत के प्रान्ध्र देश के वेणातट नगर में युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा मुनि सम्मेलन हुआ था। उस समय सौराष्ट्र देश के गिरिनगर (वर्तमान जूनागढ़) में स्थित चन्द्रगुहा निवासी प्राचार्य धरसेन ने जो अग्रायणी पूर्व के पंचम वस्तु गत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभूत के १. पुणो तद्दिवसे चेव पेमिदा मंतो 'गुरु-वयरण मलंधगिज्ज' इचितिऊणागदेहि अंकुलेमर वग्मिाकालो को। जोगं समाणीय जिणवालिय दट्ठण पुप्फयंताइग्यिो वणवास-विसय गदो। भूदबलि-भडारो वि दमिलदेसं गदो। २. 'जोणि पाहुडे भणिद-मंत-तंत सत्तीयो पोग्गलाणभागो त्ति धेतव्वो' -अनेकान्त वर्ष २ जुलाई ३. यः पुष्पदन्तेन च भूतबल्याख्येनापि शिष्यद्वितीयेन रेजे। फल प्रदानाय जगज्जननां प्राप्तोऽङ्गभ्यामिव कल्पभूजः ।। -जैन शिलालेख सं० भा० १ लेख १०५
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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