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________________ अहंबली निग्रह अनुग्रह करने में समर्थ प्राचार्य थे । । उम समय पुण्डवर्धन नगर के जैन श्रमण बड़े तपस्वी, विद्वान और संघ नायक के रूप में प्रसिद्ध थे। उम ममय पध में प्रोक विद्वान ताम्वो विद्यमान थे, जो ध्यान और अध्ययन प्रादि में तत्पर रहते थे। इनके ममय तक मूल दिगम्बर परम्परा में प्रायः मघ-भेद प्रकट रूप में नही हुया था। उस समय प्रान्घ्र देश में स्थित वेण्णा नदी के किनारे बसे हा वेण्णा नगर में पचवर्षीय युग प्रतिक्रमण के समय एक बड़ा यति सम्मेलन हुना था, जिसमें सो योजन तक क मुनि गण ससघ सम्मिलित हुए थे। उस समय चन्द्रगुहानिवासी प्राचार्य धरमेन ने अपनी आयु अल्प जान ग्रन्थ-व्युच्छित्ति के भय से एक पत्र ब्रह्मचारी के हाथ उक्त सम्मेलन में भेजा था, जिसे पढ़ कर प्राचार्य अर्हद्बली ने ग्रहण धारण में समर्थ दो मुनियों को धरसेनाचार्य के पास भेजा था जो अग्रायणी पूर्व स्थित पंचम वस्तुगत चतुर्थ महाकर्म प्रकृति प्राभृतज्ञ थे, और वृद्ध तपस्वो थे । अग पूर्वो का एक देश ज्ञान उन्हें प्राचार्य परम्परा से प्राप्त हुया था। सम्भवतः अहंदवली उन मुनियों के दीक्षा-गुरु रहे हों। प्राचार्य धरसेन ने उन दोनों मुनियों को शुभ वार और शुभ नक्षत्र में ग्रन्थ का पढ़ाना प्रारम्भ किया था। विविध संघों की स्थापना प्राचार्य अहंदवली ने उक्त सम्मेलन में समागत साधुओं से-पूछा आप सब लोग आ गये। तब उन्होंने कहा-हम अपने-अपने सघ सहित आ गए। उन साधुओं की भावनाओं से पक्षपात एव आग्रह की नोति जानकर, 'नन्दि', 'वीर', 'अपराजित', 'देव', 'पंचस्तूप', 'सेन', 'भद्र', 'गुणधर', 'गुप्त', 'सिह' और 'चन्द्र' आदि नामो से भिन्न-भिन्न सघ स्थापित किये। जिससे उनमें एकता तथा अपनत्व को भावना, धर्मवात्सल्य और प्रभावना का अभिवद्धि बनी रहे । इससे अहंबली मुनि-मंघ-प्रवर्तक, कहे जाते है। वे पचाचार के स्वय पालक थे। अहंबली से पूर्व सम्भवतः संघों के विविध नाम नहीं थे। विविध सघों की स्थापना अर्हद्बली के समय से हुई है। उनसे पूर्व वह जैन निर्ग्रन्थ सघ के नाम मे विश्रुत था। प्राकृत पट्टावलो के अनुसार इनका समय वीर निर्वाण संवत् ५६५ (वि० सं० ६५) ईश्वी सन् ३८ हैं। और यह काल २८ वर्ष बतलाया है। __यहाँ यह बात खास तोर मे विचारणीय है कि प्राचार्य अर्हद्वली को धरसेन और गुणधर की गुरु परम्परा का ज्ञान न था, किन्तु उनके प्रति हृदय में बहुमान अवश्य था। सम्भव है, उनकी कृति 'कमायपाहड' उस समय विद्यमान थी। इमीमे उन्होने 'गुणधर' नाम का सघ भी कायम किया था। गुणधर का समय ईसा की प्रथम शताब्दी का पूर्वार्ध जान पड़ता है। तिलोयपण्णत्ती और धवलादि ग्रन्थों में जो श्रुत परम्परा दी है, वह लोहार्य तक है। उनमें अर्हबलि, धरसेन, माघनन्दि और पुष्पदन्त भूतबली का उल्लेख नहीं है। इनके अनुसार इनका समय लोहार्य के वाद पड़ता है। - -- - - - - -- - -- - -- --- --- १. गर्वाङ्ग पूर्व देशक देशवित्पूर्व देश मध्यगते । श्री पुण्डबर्धनपुरे मुनिरजनि नतोऽहंबल्याख्यः ।। ८५ म चतत्प्रसारगणा धारणा विशुद्धाति सत्कियो युक्तः । अष्टांग निमित्तज्ञः मघानुग्रह निग्रह समर्थ: ।। ८६ -इन्द्रनदि श्रतावतार आस्त मवत्मरपञ्चकावमान युग प्रतिक्रमणम् । कुर्वन्योजन शतमात्रवति मुनिजनसमाजस्य ॥ ८७ अथ सोऽयदा युगान्ते कुर्वन् भगवान्युगप्रतिक्रमणम् ।। मुनिजनवृन्दमपच्छत्कि मर्वेऽप्यागता यत: ।। ८८ -इन्द्रनदि श्रुतावतार ३. क्योकि श्रवण बेलगोल के शिलालेख १०५ मे पुष्पदन्त और भूतबलि को स्पष्ट रूप से मभभेदकर्ता अहंदवली के शिष्य कहा है। ४. इन्द्रनन्दि थुनावतार-६१ श्लोक से ६६ श्लोक तक के पद्य-इन्द्रनन्दि श्रुतावतार ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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