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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ किमी माध को ले जाकर ज्ञान प्रचार करने का निश्चय किया। वह कल्याण (Klas) मुनि से मिला और उनसे यूनान चलने की प्रार्थना की। मुनि कल्याण प्राचार्य दोलामम के संघ के एक शिप्य साधु थे। उन्होंने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। परन्तु आचार्य महोदय को कल्याण का यूनान जाना सम्भवत: पसन्द न था। जब मिकन्दर तक्षशिला से अपनी सेना के साथ गूनान को लौटा, तब कल्याण मुनि भी उसके साथ विहार कर रहे थे। मुनि कल्याण ने एक दिन मार्ग में ही सिकन्दर को मृत्यु की भविष्यवाणी को के वचनों के अनुसार ही वैवीलौन पहुंचने पर ई० पू० ३२३ में अपगण्ह वेला में सिकन्दर की मृत्यु हो गई। मृत्यु से पहले सिकन्दर ने मुनि महाराज के दर्शन किये और उनसे उपदेश सुना । सम्राट् की इच्छानुसार यूनानी कल्याण मुनि को आदर के साथ यूनान ले गये । कुछ वर्षों तक उन्होंने यूनानियों को उपदेश देकर धर्म-प्रचार किया। अन्त में उन्होंने समाधिमरण किया। उनका शव राजकीय सम्मान के साथ चिता पर रख कर जलाया गया। कहते है, उनके पाषाण चरण एथेन्स में किसी प्रसिद्ध स्थान पर बने हुए है। उस समय तक्षशिला में अनेक दिगम्बर मूनि रहते थे। इस बात की पूप्टि अनेक इतिहास ग्रन्थों से होती है। सिकन्दर ने जब अोनेसीक्रेट्स को दिगम्बर मुनियों के पास भेजा, उमका कहना है कि उसने तक्षशिला में २० स्टैडीज दूरी पर १५ व्यक्तियों को विभिन्न मुद्राओं में खड़े हुए, बैठे हुए या लेटे हुए देखा, जो बिल्कुल नग्न थे। वे शाम तक इन आसनों से नही हिलते थे। शाम के समय शहर में आ जाते थे। सूर्य का ताप सहना सबसे कठिन कार्य है। परन्तु आतापन योग का अभ्यास करने वाले मुनिजन इसको शान्ति के साथ सहन करते थे। परिषह-सहिष्णु बन कर ही मुनिजन कर्मक्षय के योग्य आत्म-शक्ति को सचित करते थे। -Plutarch-A.I-P.71 -(प्लूटार्च, एंशियैण्ट इंडिया पृ०७१) प्राचार्य गुणधर-- जेणिह कसायपाहुडमणेय-णयमुज्जलं अणंतत्थं । गाहाहि विवरियं तं गुणहर-भट्टारयं वंदे । जयधवलायां वीर सेनः वे अपने समय के विशिष्ट ज्ञानी विद्वान् थे। वे पांचवें ज्ञानप्रवाद पूर्व स्थित दशमवस्तु के तीसरे पेज्जदोस पाहुड के पारगामी थे। उन्हे पेज्जदोस पाहुइ के अतिरिक्त महाकम्मपयडि पाहुड का भी ज्ञान था। उक्त पाहुड से सम्बन्ध रखने वाले विभक्ति, बन्ध, संक्रमण और उदय उदीरणा जैसे पृथक् अधिकार दिये हैं। इनका महाकम्म पयडि पाहुड के चौवीस अनुयोग द्वारों से क्रमशः छठे, दशवे और बारहवें अनुयोग द्वारों से सम्बन्ध है। महाकर्म प्रकृति पाहुड वां अल्प बहुत्व अनुयोगद्वार भी कसाय पाहुड के अधिकारों में व्याप्त है। इससे स्पष्ट है कि गुणधर महाकर्म प्रकृति के भी ज्ञाता थे। इन्होंने अंगज्ञान का दिन-प्रतिदिन लोप होते देखकर थतविच्छेद के भय से और प्रवचन वात्सल्य से प्रेरित होकर १८० गाथा मूत्रों में उसका उपसहार किया और उस विषय को स्पष्ट करने के लिए ५३ विवरण गाथाओं का भी निर्माण किया। प्रतः ५३ विवरण गाथानों सहित उसकी संख्या २३३ गाथाओं के परिमाण को लिये हो गई । प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम पेज्जदोस पाहुड है। पेज्ज का अर्थ राग और दोस का अर्थ द्वेष राग-द्वेप-मोह का विवेचन करने के लिये कर्मों की विभिन्न स्थितियों का चित्रण किया गया है। राग-द्वेष क्रोध, मान, माया और लोभादिक दोपों की उत्पत्ति, स्थिति, तज्जनित कर्मबन्ध और उनके फलानुभवन के साथसाथ उन रागादि दोषों को उपशम करने-दबाने, उनकी शक्ति घटाने, क्षीण करने - प्रात्मा में से उनके अस्तित्व को मिटा देने, नृतन बंध रोकने और पूर्व में संचित कषाय मल चक्र को क्षीण करने-उसका रस सुखाने-और प्रात्मा के शुद्ध एवं सहज विमल प्रकषाय भाव को प्राप्त करने का सुन्दर विवेचन किया गया है । मोह कर्म प्रात्मा का सबसे प्रबल शत्र है, राग-द्वेषादिक दोष मोह कर्म की ही पर्याय है। कर्म किस स्थिति में और किस कारण से प्रात्मा के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं, उनके सम्बन्ध से प्रात्मा में कैसे सम्मिश्रण होता है और उनमें किस
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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