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________________ जैनधर्म जीवन और जगत् नही था । अपेक्षा है विज्ञान और परामनोविज्ञान के साथ भारतीय अध्यात्मविज्ञान वह प्रक्रिया प्रस्तुत करे, जिससे विकसित चेतना का स्वामी मनुष्य स्वय अपने अतीत और अनागत की अवस्थाओ या जन्मो का अनुभव कर चेतना को अध्यात्म के नए आयाम मे प्रविष्टि दे सके । प्रागैतिहासिक काल से लेकर आज तक ससार के अनेक देशो की विभिन्न जातियो मे पूनर्जन्म का व्यापक विश्वास जमा हआ है । बर्मा, चीन, जापान, तिब्वत, पूर्वी द्वीप समूह, लका, भारत आदि देशो मे तो पुनर्जन्म की मान्यता के बिना धर्म की भी सिद्धि नहीं होती। हिन्दू, जैन और बौद्ध जगत् का प्राय शत-प्रतिशत और ईसाई जगत् का बहुमत इस सिद्धात का अनुगामी है । वास्तव मे विश्व की एक तिहाई से अधिक जनसख्या पुनर्जन्मवाद को स्वीकार करती है। उन-उन देशो के तत्त्व-चितको और धर्माचार्यों ने अनेक युक्तियो से, तों से तथा अपने निजी अनुभवो से पुनर्जन्म को सिद्ध किया है। अपने विश्वास को पुष्ट किया है । भारतीय परम्पराएं जैन-दशन । अनुसार प्राणी यदि सत्कर्म करता है तो उसका अच्छा फल भोगता है । यदि वह असत्कर्म करता है तो उसका बुरा फल भोगता है। कुछ कमों का पल उसी जीवन मे भोग लिया जाता है और कुछ कमों का फल वह अगले जन्म मे भोगता है । कुछ ऐसे भी निबिड कर्म होते हैं जो प्राणी को जन्म-जन्मान्तरो तक प्रभावित करते रहते है। उन्हे भोगने के लिए वह अनेक बार सद्गति और दुर्गति को प्राप्त करता है। सत्कर्मों के फन-भोग क उपयुक्त स्थान और वातावरण का मिलना सद्गति है और असत्कर्मों क फल-भोग के उपयुक्त स्थान, वातावरण आदि का मिलना ही दुगति है। ___ भगवान् महावीर आत्मा, परलोक, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के प्रबल समर्थक थे । उन्होने कहा-"परलोक नही है"-ऐसा मानना और चिंतन करना मूढता है। भगवान ने कहा- "ससारी प्राणी अपने कृत कर्मों के अनुसार नरक, तियंच, मनुष्य और देव - इस चतुतिमय ससार मे परिभ्रमण करता रहता है। उन्होन यह भी बताया कि प्राणी की कौन-सी वृत्ति और प्रवृत्ति कौनसी गति का निमित्त बनती है। महाहिंसा, महापरिग्रह, पचेन्द्रियवध और मासाहार ये दुर्गति नरक गति के हेतु है । विविध प्रकार के शील-सदाचार का पालन करने वाले व्यक्ति देवकल्पो व उसके ऊपर के देवलोको की आयु का भोग करते हैं । (उत्तराध्ययन ३/१३-१५)
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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