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________________ जन्मान्तर यात्रा (गतिचक्र) दीघा जागरतो रत्ती, दीघो सतस्स जोयण । दीघो बालानं ससारो, सद्धम्म अविजानतो ॥ (धम्मपद) अनिद्रा रोग से ग्रस्त व्यक्ति के लिए रात लम्बी हो जाती है, थके हुए पथिक के लिए एक योजन का मार्ग भी लम्बा हो जाता है, वैसे ही धर्म का मर्म न जानने वाले अज्ञानी प्राणी का ससार लम्बा हो जाता है। जैसे कोई दृष्टिहीन व्यक्ति गहन जगल मे फस जाता है तो कठिन होता है उससे निकलना, वैसे ही चतुर्गतिमय ससार कान्तार दुरन्त है। उसका रास्ता बहुत लम्बा है । मोह-मूढ व कर्मों से बधे प्राणी अनादि काल से उसमे परिभ्रमण कर रहे हैं । वे न तो उसका पार पा रहे हैं और न ही उन्हे निकलने का कोई उपाय सूझ रहा है । बस, भटकना ही उनकी नियति है। जन्म और मृत्यु की परम्परा को वे निरन्तर दुहराते रहते हैं। "जायन्ते ये नियन्ते ते, मृताः पुनर्भवन्ति च ।" जो जन्मते हैं, वे मरते हैं, जो मरते हैं उनका पुनर्जन्म भी होता है । यह पूर्वजन्म व पुनर्जन्म ही ससार की यात्रा है । प्रत्येक ससारी प्राणी सशरीरी होता है । वह जन्मान्तर की यात्रा सूक्ष्म शरीर से करता है। कर्म शरीर और तैजस् शरीर, जिसे विद्युतीय शरीर भी कह सकते हैं-सूक्ष्म होते हैं और वे मृत्यु के बाद भी जीव के साथ रहते हैं । मरणोपरात स्थूल-शरीर पीछे छ्ट जाता है । कर्म शरीर कारण शरीर है। उसके आधार पर जीव नए शरीर का निर्माण कर लेता है। गेहात् गेहान्तरं यान्ति मनुष्या गेहवर्तिन । देहात् देहान्तर यान्ति प्राणिनो देहवर्तिनः ।। (सबोधि १५।२३) जैसे गृहस्वामी मनुष्य एक घर को छोड, दूसरे घर मे चला जाता है, वैसे ही देहवर्ती प्राणी एक देह को छोड, दूसरी देह का निर्माण कर लेते हैं । इस जन्मान्तर-गामिनी यात्रा के चार पडाव हैं । जैन तत्त्व की भाषा मे इसे चार गति के रूप में जाना जाता है । गति का अर्थ है-एक जन्म स्थिति से दूसरी जन्म-स्थिति को प्राप्त करने के लिए होने वाली जीव की यात्रा । गति चार हैं - १ नरक गति । २. तिर्यञ्च गति । ३ मनुष्य गति ।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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