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________________ जैनधर्म : जीवन और जगत् १६ वह चाहे किसी रूप मे रहे । कालातर मे घडे का मुकुट बना लिया जाता है । पहला व्यक्ति खिन्न होता है और दूसरा प्रसन्न । तीसरा न खिन्न न प्रसन्न । उसे सोना चाहिए था वह सुरक्षित है । स्वर्ण धीव्य है, घडा मोर मुकुट उसकी पूर्व - उत्तर अवस्थाए हैं । त्रिपदी के संबध मे विस्तार से जान लेने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि विश्व में ऐसी कोई भी वस्तु नही है, जो केवल उत्पन्न ही होती है । या केवल विनष्ट ही होती है अथवा कूटस्थ नित्य ही है। सत् त्रयात्मक है । उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य ये तीनो वस्तु के अपरिहार्य अग हैं । उत्पाद - नयी-नयी अवस्थाओं का प्रादुर्भाव 1 विनाश - पूर्व - पूर्व अवस्थाओ का परित्याग । ध्रौव्य --- उत्पाद और विनाश के होते हुए भी वस्तु का अन्वयी गुण धर्म | जैन दर्शन मे इस त्रिपदी को मातृपदिका भी कहते हैं । द्रव्य की दृष्टि से प्रत्येक पदार्थ ध्रुव है । कोई भी पदार्थ न तो नये सिरे से उत्पन्न होता है और न अपना अस्तित्व खोकर शून्य मे विलीन होता है । मात्र उसका परिणमन होता रहता है | जैन- दर्शन का यह परिणामी नित्यत्ववाद आधुनिक विज्ञान से भी पुष्ट हो रहा है । प्रसिद्ध वैज्ञानिक लेवाईजर लिखते हैं- "किसी भी क्रिया से कुछ भी नया उत्पन्न नही किया जा सकता और किसी भी क्रिया के पहले और पीछे वस्तु की मूल मात्रा मे कोई अंतर नही आता । क्रिया से केवल पदार्थ का रूप परिवर्तित होता है । वैज्ञानिक डेमोक्राइटस भी तथ्य को प्रकट करते हैं - विज्ञान के शक्ति-स्थिति, वस्तु अविनाशित्वा, शक्ति को परिवर्तनशीलता आदि सिद्धातो से यह धारणा मजबूत होती है कि नाशवान् पदार्थ मे भी ध्रुवत्व है अर्थात् असत् की उत्पत्ति नही होती और सत् का विनाश नही होता । त्रिपदी का यथार्थ बोध वस्तुगत सच्चाइयो का उद्घाटन करता है । आंतरिक मूर्च्छा के वलय को तोडता है । सम्यक् दृष्टिकोग का निर्माण करता है । दृष्टि सम्पन्नता ही सत्य शोध का आदि बिंदु है ।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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