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________________ १४ जैनधर्म : जीवन और जगत् ध्रौव्य पदार्थ का सहभावी गुण है । उत्पाद और विनाश उसकी क्रमभावी अवस्थाए हैं, जो पर्याय कहलाती हैं। विश्व का कोई भी पदार्थ इस त्रयी का अपवाद नहीं है । इसे द्रव्य का घटक तत्त्व कहे तो कोई आपत्ति नहीं होगी। पदार्थ की अपने स्वरूप में अवस्थिति ध्रौव्य है और उसमे जो सतत परिवर्तन की धारा चालू है, वह पर्याय है । द्रव्य गुण और पर्याय--- दोनो का समवाय है। जीव-जगत और त्रिपदी ___ लोक मे जीव अनन्त हैं । ससारी जीव भी अनन्त हैं और मुक्त आत्माए भी अनन्त हैं । कर्मवद्ध जीव ससारी हैं । कर्मावरण को क्षीण कर जो ससारी जीव मुक्त हो जाते हैं वे सिद्ध कहलाते हैं। ये आत्मा की शुद्ध और अशुद्ध अवस्था-जनित भेद है, पर जीवत्व दोनो स्थितियो मे समान अनन्त जीवो के मुक्त हो जाने पर भी ससार जीव-शून्य नहीं होता। इसका कारण यह है कि जीव दो प्रकार के हैं -अव्यवहार राशि और व्यवहार राशि । अव्यवहार राशि सूक्ष्मतम वनस्पति जगत् है । उसे निगोद भी कहते हैं । निगोद जीवो का अक्षय कोष है । वह अव्यवहार राशि है। स्थूल-जगत् या व्यवहार राशि से जैसे-जैसे जीवात्माए मुक्त होती हैं, वैसेवैसे अव्यवहार राशि से उतने ही जीव व्यवहार राशि में आ जाते हैं। इसलिए अनन्त जीवो की मुक्ति हो जाने पर भी ससार जीव-शून्य नही होता । निगोद के जीवो का कभी अन्त नहीं आता। उनके एक शरीर मे अनन्त जीव रहते हैं। शरीर भी इतना सूक्ष्म जिसकी कल्पना भी नही की जा सकती। आधुनिक विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर मे आलपिन की नोक टिके उतने भाग मे दस लाख कोशिकाए हैं । यह स्थूल-जगत् की बात है। निगोद-सूक्ष्म जगत् है । वहा एक शरीर मे अनन्त जीवो का होना असभव नही है । तात्पर्य की भाषा मे अनन्त-अनन्त जीवों से भरे इस ससार मे कभी जीवो का अस्तित्व समाप्त नहीं होता। इस दृष्टि से जीव जगत् ध्रव है। शाश्वत है । जीव प्रतिक्षण उत्पन्न होते हैं, विनष्ट होते हैं - इस अपेक्षा से वह अनित्य है। परिवर्तनशील है। जैसे पुराने कपडे के फट जाने पर नया कपडा धारण किया जाता है, वैसे ही ससारी आत्माए पूर्व देह का त्याग कर नये शरीर का निर्माण करती हैं । जन्म-जन्मान्तर की यात्रा मे वे नाना योनियो मे परिभ्रमण करती हैं, नाना गतियो का अनुभव करती हैं । नरक, तिर्यंच, मनुष्य अथवा देव रूप मे उत्पन्न हो उन-उन अवस्थाओ का सवेदन करती है । परिवर्तन का चक्र अविराम घूमता रहता है फिर भी उसके ध्रुव तत्त्व-चैतन्य की अमिट
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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