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________________ त्रिपदी : अस्तित्व के तीन आयाम इन्द्रभूति गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-किं तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा - "उप्पन्ने इ वा"-उत्पाद तत्त्व है। गौतम की समस्या सुलझी नही । उन्होने दूसरी बार पूछा-किं तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा- “विगमेइवा'- विनाश तत्त्व है। गौतम की जिज्ञासा शात नही हुई । उन्होने तीसरी बार वही प्रश्न किया-कि तत्त ? भते । तत्त्व क्या है ? भगवान् ने कहा - गौतम । धुवे इ वा-ध्रुव तत्त्व है। यहा तत्त्व का अर्थ है-~-पारमार्थिक वस्तु ।' इसके लिए 'सत्' शब्द का भी प्रयोग होता है । जितने भी अस्तित्त्ववान् पदार्थ हैं, वे सब सत् हैं, तत्त्व हैं, वास्तविक पदार्थ हैं । इनमे जड और चेतन दोनो का समावेश हो जाता है। __ पदार्थ के सम्बन्ध मे सभी दार्शनिक एकमत नहीं हैं । कुछ दार्शनिक पदार्थ को नित्य-स्थायी मानते हैं और कुछ दार्शनिक उसे अनित्य-- परिवर्तनशील मानते हैं । जैन-दर्शन पदार्थ को स्थायी भी मानता है और परिवर्तनशील भी मानता है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य-यह जैन-दर्शन की त्रिपदी है। जैसे विष्णु ने वामनावतार मे तीन चरणो से समग्र ब्रह्माण्ड को नाप लिया था, वैसे ही अमाप्य मेधा के धनी इन्द्रभूति गौतम ने तीन प्रश्नो के माध्यम से सपूर्ण श्रुतज्ञान या आईत्-दर्शन को आत्मसात् कर लिया। इसी त्रिपदी के आधार पर उन्होने द्वादशागी की रचना की। उनकी ज्ञान-चेतना मे यह स्पष्ट प्रतिबिंबित हो गया कि केवल उत्पाद विनाश या ध्रौव्य वास्तविक नही है। तीनो का सापेक्ष योग ही यथार्थ है। द्रव्य मे दो प्रकार के धर्म होते हैं-सहभावी (गुण) और क्रमभावी (पर्याय) । बौद्ध सत् द्रव्य को एकात अनित्य मानते हैं तो वेदाती सत्पदार्थब्रह्म को एकात नित्य मानते हैं । पहला परिवर्तनवाद है तो दूसरा नित्य १ जैन सिद्धात दीपिका २/१ (आचार्य श्री तुलसी) तत्त्व पारमा थिक वस्तु । २ जैन तत्त्व विद्या ४/१ (आचार्य श्री तुलसी)
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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