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________________ ज्ञान है आलोक अगम का प्रस्तुत किया जाए। इसके लिए जरूरी है जैन तत्त्व-विद्या को आधुनिक शिक्षा-पद्धति के साथ जोडकर उसे समग्रता प्रदान की जाए। जन शिक्षापद्धति की सर्वांगीणता है -ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा। आज की भाषा मे यह सैद्धातिक और प्रायोगिक प्रशिक्षण नाम से सुपरिचित है । युगप्रधान आचार्यश्री तुलसी के नेतृत्व मे तेरापथ मे जहां अध्यात्मविज्ञान, मनोविज्ञान, व्यावहारिक-मनोविज्ञान, जीवन-विज्ञान आदि अनेक विद्या शाखाओ का आधुनिक सदर्भो मे अध्ययन हो रहा है, वहा जैन तत्त्वविद्या का भी अध्यवसाय पूर्वक प्रशिक्षण दिया जा रहा है। सत्त्व-विद्या का प्रक्षिक्षण हमारे शैक्षिक क्रम मे प्रथम सोपान है । क्योकि तत्त्व-दर्शन की नीव पर प्रतिष्ठित जीवन मे अद्भुत चमक होती है। तत्त्वज्ञ व्यक्ति का समग्र व्यवहार अपूर्व ढग का होता है । तत्त्वज्ञ व्यक्तियो मे आध्यात्मिकता, आचारनिष्ठा और जिज्ञासु वृत्ति के रत्नदीप सदा-सर्वदा ज्योतित रहते हैं। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार "विश्व के रहस्यमय अन्तिम तत्त्व को खोजने की दिशा में दर्शन, सिद्धात एव आचार-शास्त्र से भी अधिक मूल्यवान है--मनुष्य का तात्त्विक प्रयत्न । तत्त्व-ज्ञान ही सत्य का प्रतिपादक है । सत्य से अनुप्राणित आचार और व्यवहार ही जीवन को ऊचाइया प्रदान कर सकता है।" जैसे बत्तख का बच्चा कभी पानी मे नही डूबता, उफनती नदी की क्षुब्ध तरगो पर भी वह तैरता रहता है, वैसे ही ज्ञानी व्यक्ति का चित्त विपरीत परिस्थितियो मे भी क्षुब्ध नही होता । चरक सहिता मे लिखा है "लोके विततमात्मानं, लोक चात्मनि पश्यतः । परावरदृशः शान्ति निमूला न नश्यति ॥ जो लोक मे आत्मा को और आत्मा मे लोक को व्याप्त देखता है, उस तत्त्वज्ञानी की ज्ञानमूलक शाति कभी भग नही होती। क्योकि ज्ञानी व्यक्ति की मनोनियामिका शक्ति प्रवल होती है, इसलिए वह आवेश और उत्तेजना के वशीभूत होकर अपना सतुलन नही खोता। जैन-दर्शन न केवल ज्ञानवादी है और न केवल आचारवादी। वह समन्यवादी है । जैन-दृष्टि मे ज्ञान और आचार दोनो का समान महत्त्व है । वह मानता है आचार-शून्य ज्ञान जहा पत्र-पुष्प-शून्य वृक्ष है, वहा ज्ञान शून्य आचार जड रहित वृक्ष है। फिर भी महंतवाणी का घोष "पढम नाण तो दया" इस ओर सकेत करता है कि ज्ञान के द्वारा ही हम हित मे प्रवृत्त होते हैं, अहित से निवृत्त होते हैं और किसी भी परिस्थिति मे मध्यस्थ रहने की क्षमता अजित करते हैं। निश्चय दृष्टि से कहा जाए तो तत्त्व ज्ञान ही अगम का आलोक पथ है।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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