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________________ जैनधर्म जीवन और जगत् १५० अनुयोग प्रर्वतक तथा नागार्जुन को वाचक रूप मे वदना की है । पांचवी वाचना पुन माथुरी और बल्लभी वाचना के १५९ वर्ष पश्चात् यानी वी नि ९८० मे देवद्धगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता मे श्रमण संघ एकत्रित हुआ । देवद्धिगणी श्रुत-रत्नो के धारक युग प्रभावक आचार्य थे । वे एक पूर्व के ज्ञाता थे । उन्होने अनुभव किया - स्मृति दौर्बल्य श्रुत- परावर्तन का अभाव, गुरु-परम्परा की विच्छित्ति इत्यादि कारणो से श्रुत की धारा अत्यत क्षीण हो रही है । पूर्वं श्रुत वह अथाह अपार ज्ञान राशि है जिसके लिए कहा जाता है कि सपूर्ण पृथ्वी को कागज और मदराचल को लेखनी बना लिया जाये तो भी उस ज्ञान का लेखन सभव नही, उस अमेय ज्ञान - सपदा क श्रमण अपनी स्मृति - परम्परा से सुरक्षित रखते थे । आर्य देवद्धिगणी समयज्ञ थे । उन्होने देखा, अनुभव किया कि अब समय बदल गया है, स्मृति के आधार पर श्रुत को सुरक्षित रखना सभव नही है । श्रमणो की स्मरण शक्ति उत्तरोतर क्षीण होती जा रही है । समय रहते यदि श्रुत-सुरक्षा का उचित उपाय न खोजा गया तो उसे बचाना कठिन है । इसी चितन के आधार पर देवद्धिगणी क्षमाश्रमण के नेतृत्व मे श्रमण- सघ पुन मथुरा मे एकत्रित हुआ । उपलब्ध कठस्थ श्रुत के आधार पर विछिन्न आगम-वाड्मय को व्यवस्थित किया गया । यह वीनि की दसवी सदी की महत्त्वपूर्ण आगम-वाचना थी । आगम - साहित्य को स्थायित्व देने की दृष्टि से उनके निर्देशन मे आगम-लेखन का कार्य प्रारम्भ हुआ । उस समय माधुरी और बल्लभी दोनो ही वाचनाए उनके समक्ष थी । दोनो परम्पराओ के प्रतिनिधि आचार्य एव मुनिजन भी उपस्थित थे । देवद्धिगणी ने माथुरी वाचना को प्रमुखता प्रदान की और बल्लभी - वाचना को पाठातर के रूप मे स्वीकार किया। माधुरी - वाचना के समय भी आगम ताड - पत्रो मे लिखे गये थे, पर इस दिशा मे जो सुव्यवस्थित कार्यं देवद्धगणी ने किया, वह अपूर्वं था । बलहीपुरम्म नयरे, देवडिय महेण समण सघेण । पुत्थइ आगमु लिहिओ, नवसय असी सयाओ वीराओ ।। इससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रमण संघ ने आचार्य देवद्धिगणी की निश्रा में वीनि ९८० मे वाडमय को पुस्तकारूढ़ किया था । उनके इस पुनीत प्रयत्न से आगम-ज्ञान की धारा सुरक्षित रही । उत्तरवर्ती परम्परा उपकृत हुई । आज जन शासन से जो आगमम-निधि सुरक्षित है, उसका श्रेय देवगणी क्षमाश्रमण के दूरदर्शिता पूर्ण सत्प्रयत्नों को ही हे । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के सत्ताईस पाट तक आचार-विचार को
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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