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________________ १४४ जैनधर्म जीवन और जगत् जैन-श्रमणो ने अपनी पद-यात्राओ से जहा बहुत कुछ पाया है, वहा कुछ उपलब्धियो से उन्हे वचित भी रहना पड़ा है। चर्या के कठोर नियमो के कारण उनके विहार क्षेत्रो का परिसीमन हो गया। वे व्यापक रूप से विदेशो मे नही जा सके । इसलिए वहा जैन-धर्म का व्यापक प्रचारप्रसार भी नहीं हो सका। हालाकि प्राचीन समय मे जैन श्रमण बहुत बड़ी सख्या में विदेशो मे विहार करते थे, ऐसा अनेक ठोस प्रमाणो के आधार पर सिद्ध हो चुका है। ___ अनेक विद्वानो का अभिमत है कि भगवान् ऋषभ, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर ने अनार्य देशो मे विहार किया था। उनके शिष्य श्रमण भी भारी संख्या में विदेशो मे घूमते थे । उत्तर-पश्चिम सीमा प्रात एव अफगानिस्तान मे विपुल सख्या मे जैनश्रमण विहार करते थे। ई० पू० २५ मे पाड्य राजा ने अगस्ट्स सीजर के दरबार मे दूत भेजे थे। उनके साथ श्रमण भी यूनान गये थे। विद्वान् इतिहास-लेखक जी० एफ० मूर के अनुसार ईसा पूर्व इराक, श्याम और फिलीस्तीन मे जैन मुनि सैकडो की सख्या मे चारो ओर फैले हुए ये । पश्चिमी एशिया, मिश्र, यूनान और इथियोपिया के पहाडो और जगलो मे उन दिनो अगणित भारतीय साधु रहते थे। वे अपने त्याग और विद्या के लिये प्रसिद्ध थे । वे साधु वस्त्रो तक का परित्याग किये हुए थे। यूनानी लेखक मिश्र, एबीसीनिया और इथ्यूपिया मे दिगम्बर मुनियों का अस्तित्व बताते हैं। इस प्रकार मध्य एशिया मे जैन-धर्म या श्रमण-सस्कृति का काफी प्रभाव था। उससे वहा के धर्म भी प्रभावित हए थे। जावा, सुमात्रा और लका मे भी जैन-मुनियो के विहार का उल्लेख मिलता है। इससे हम इस निष्कर्ष तक पहुचते हैं कि एक समय ऐसा था, जब हिन्दुस्तान के बाहर के देशो मे जैन-मुनि पहुचे थे और वहा जैन-धर्म का अच्छा प्रसार हुआ था । कालातर मे जैन-श्रमणो की उपेक्षा या अन्यान्य परिस्थितियो के कारण सुदूर देशों की पद-यात्राओ का वह क्रम स्थायित्व नही पा सका। लेकिन भारत में लगभग सभी प्रातो मे आज भी सभी जैन-सम्प्रदायों के साधु-साध्विया उसी रूप में भ्रमण करते हैं और जन-जीवन को जागृति का सदेश देते हैं। ____ अणव्रत अनुशास्ता युगप्रधान गुरुदेवश्री तुलसी ने स्वय लगभग सत्तर हजार कि. मी की पद-यात्रा कर सपूर्ण देश की आध्यात्मिक ओर
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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