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________________ १४० जैनधर्म : जीवन और जगत् होते हैं । अकिंचन के लिए अनिकेतन होना जरूरी है और अनिकेतन के लिए परिव्रजन । इसलिए वे नियतवासी न वनकर परिव्रजन करते रहते हैं। जैन मुनियो के लिए प्रयुक्त 'अनगार' शब्द से उनकी यही अनिकेतता ध्वनित होती है। जैन मुनि पूर्ण अहिंसक होते हैं । अत वे सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी की हिंसा का वर्जन करते हैं । जैन-दर्शन के अनुसार पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा और हरियाली-ये सारे सूक्ष्म जीवो के पिंड हैं । जैन मुनि इनकी हिंसा से उपरत रहते हैं । वाहनो का प्रयोग करने से उक्त सूक्ष्म-कायिक जीवो की हिंसा से बचा नहीं जा सकता। स्थूल जीवो मे भी कीडे-मकोडो से लेकर मनुष्य तक न जाने कितने प्राणी वाहनो की अन्धी दौड मे कुचल दिए जाते हैं। सूक्ष्म जीवो की हिंसा से भी उपरत रहने वाले अहिंसा-व्रती मुनि ऐसी स्थूल हिंसा के निमित्त भी कैसे बन सकते हैं ? पाव-पांव चलते हुए भी जैन मुनि ई-समिति-गति-शुद्धिपूर्वक चलते हैं-पथ को देखते हुए चलते हैं, ताकि उनके चलने से पथ-गत सूक्ष्म या स्थूल जीवो का हनन न हो। वाहन से चलते हुए मुनि ई-समिति का पालन नही कर सकते । उसके अभाव में उनका अहिंसा महाव्रत खडित होता है । अत अहिंसा महाव्रत का सम्यक् पालन करने के लिए जैन मुनि वाहन का प्रयोग नहीं करते। निष्कर्ष की भाषा मे जैन मुनि अहिंसक और अकिंचन-दोनो होते हैं, इसलिए वे पद-यात्रा करते हैं। पद-यात्रा आगमिक विधान ___ जैन तीर्थंकरो या मुनियो की चर्या का जहा भी वर्णन आता है, उनके लिए यह विशेष उल्लेख मिलता है 'गामाणुगाम दूइज्जमाणे, सुहसुहेण विहरमाणे-एक गाव से दूसरे गाव घूमते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए ।' जैन मुनियो के लिए कही एक जगह आश्रम बनाकर बैठने का उल्लेख किसी भी प्राचीन और मौलिक ग्रन्थ मे उपलब्ध नहीं होता। ___ आगम कहते हैं- "मुनि कारण के बिना एक स्थान मे न रहे।" साधु-साध्विया हेमन्त और ग्रीष्म ऋतु मे विहार करते रहे । जैन मुनियो का अनियतवास प्रशस्त माना गया है। दशवकालिक चूणि मे अगस्त्य स्थविर लिखते हैं—" • ण णिच्च मेगत्थ-वसियव्व किन्तु विहरितन्व"-मुनि नित्य एक स्थान मे न रहे, अपितु विहार करते रहे। विहार की दृष्टि से वर्ष को दो भागो मे बाटा गया है-वर्षाकाल और ऋतुबद्धकाल । वर्षाकाल में मुनि एक स्थान मे चार मास तक रह
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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