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________________ १३६ जैनधर्म . जीवन और जगत् जहा जाते हैं, वही व्यक्तिगत, सार्वजनिक या सरकारी जो भी स्थान मिले, अधिकारियो की अनुमति पूर्वक रह जाते हैं। त्याग का उत्कृष्ट नमूना है अनगार वृत्ति। आधुनिक मनोविज्ञान के प्रवर्तक फायड के अनुसार प्राणी की मौलिक वृत्ति है 'काम'। भगवान महावीर की दृष्टि मे प्राणी की मौलिक वृत्ति है लोभ-परिग्रह । 'काम' को कामना के रूप मे स्वीकार करें तो दोनो विचारो मे सवादिता हो सकती है। आधुनिक मनोविज्ञान ने इस क्षेत्र मे नई खोज की है। उसकी मान्यता से प्राणी को मौलिक वृत्ति है अधिकार की भावना। छोटे से छोटे प्राणी मे अपने घर के प्रति प्रवल अधिकार की भावना होती है । उसको त्याग देना कठिन काम है। जैन मुनि का आदर्श हैं -निर्गन्यता, अकिंचनता। उसकी साधना के लिए वह सबसे पहले इसी अधिकार-वृत्ति 'पर प्रहार करता है । अगार (घर) को त्याग अनगार बन जाता है । वृत्ति-परिष्कार की यात्रा में बहुत ही अर्थवान बन जाता है अनगार शब्द । ० जैन मुनियो का जीवन-व्रत है - पदयात्रा। वे जब अपना सामान कधो पर लिए, नगे पाव, गाव-गाव और नगर-नगर मे धर्म की महाज्योति लिए पहुंचते हैं तो लगता है श्रमण-सस्कृति का परम पुरुषार्थ देह-धारण कर अज्ञान और आलस्य के तमस को समाप्त कर रहा है। ० जैन मुनि भिक्षा-जीवी होते हैं। उनकी भिक्षा विधि को गोचरी या साधुकरी वृत्ति कहते हैं। वे एक ही घर से भिक्षा नहीं लेते । अनेक घरों से थोडी-थोडी भिक्षा लेते हैं, जिससे उनका काम भी चल जाए और गृहस्थ को भी भार महसूस न हो। वे गृहस्थ के लिए जो सहज निर्मित भोजन होता है, उसे ग्रहण कर लेते हैं । नैमित्तिक आहार नहीं लेते। ० वे शुद्ध सात्त्विक भोजन ग्रहण कर अहिंसात्मक तरीके से जीवनयापन करते हैं । वे मास, अडे और मादक द्रव्यो का सेवन नहीं करते। ० वे गृहस्थोचित कार्यों मे भाग नहीं लेते। ० वे किसी राजनैतिक पार्टी का समर्थन या विरोध नही करते । • वे सापेक्ष सहयोग लेते हुए भी पूर्ण स्वावलम्बी जीवन जीते हैं । ० वे स्वय ही हरिजन हैं और स्वय ही महाजन । ० उनकी विहार-चर्या प्रशस्त होती है। उनकी चर्या के चार ध्रुव है-स्वाध्याय, ध्यान, पवित्रता और तप। उनके आचार-शास्त्रीय नियम इन्ही ध्रुवो की परिक्रमा करते हैं। यह पवित्र आचार सहिता सदियोसहस्राब्दियो से जैन श्रमण सघो को प्राणवान बनाए हुए है। यही समस्त सत-परम्परा की जीवन्तता का आधार है।
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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