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________________ जैनधर्म : जीवन और जगत् ५. अपरिग्रह महावत-सग्रह-त्याग, समत्व-विसर्जन । जैन-मुनि अकिंचन होते हैं । वे सोना-चादी, रुपये-पैसे नहीं रखते । किसी प्रकार का बैक-बैलेंस नहीं रखते। जमीन-जायदाद नहीं रखते। यहा तक कि दूसरे दिन के लिए भी खाद्य-पेय पदार्थों का संग्रह नहीं करते। कबीरजी ने भी इसके समर्थन मे लिखा है __साधु हो संग्रह करे, दूजे दिन का नीर । तरे न तारे जगत् को, कह गये दास कबीर ॥ ६. रात्रि-भोजन-वर्जन-जन-आगमो मे रात्रि-भोजन का त्यागछठा व्रत माना गया है। जैन मुनि पाच महाव्रतो की भाति रात्रि-भोजनविरमण व्रत का भी पूरी निष्ठा के साथ पालन करते हैं। वे रात्रि में किसी प्रकार के खाद्य-पेय पदार्थ और औषध का सेवन नहीं करते। यह बहुत बडा तप है। उक्त पाच महाव्रत जैन मुनि की साधना का मूल आधार है। इनकी पुष्टि और सिद्धि के लिए उन्हे सतत जागरूक प्रयत्न करना होता है । बारवार अभ्यास करना होता है। प्रत्येक महाव्रत की आराधना के लिए जैनशास्त्रो मे पाच-पाच अभ्यास-विन्दु निर्दिष्ट हैं, जिन्हे भावना कहते हैं । जैन-परम्परा मे पाच महानतो की पच्चीस भावनाए सुप्रसिद्ध हैं, जैसे १. अहिंसा महाव्रत की पाच भावनाए-१. चलने मे जागरूकता, २. मन का सयम, ३. वाणी का सयम, ४. धर्मोंपकरणो के व्यवहार में जागरूकता, ५ आहार-शुद्धि का विवेक । २. सत्य महावत की पाच भावनाए-१ वाणी का विवेक, २-५. क्रोध, लोभ, भय और हास्य का वर्जन । ३. अचौर्य महाव्रत की पाच भावनाए-१. याचना का विवेक, २. उपभोग का विवेक, ३ परिमित पदार्थों का स्वीकरण, ४. उनकी सीमा का निर्धारण, ५ सामिको से याचना का विवेक । ४. ब्रह्मचर्य महाव्रत की पाच भावनाए-१ एकान्तवास, २ वैषयिक कथा का वर्जन, ३. चक्षु-सयम, ४. स्मृति-सयम, ५. अतिमात्र/प्रणीत भोजन का वर्जन । ५. अपरिग्रह महाव्रत की पाच भावनाए-१-५, पाचो इन्द्रियो का सयम तथा मनोज्ञ-अमनोज्ञ इन्द्रिय-विषयो के प्रति समता की साधना । ____ महाव्रतो की सुरक्षा के लिए पांच समितियो और तीन गुप्तियो के पालन का प्रावधान है। ये जिन-शासन मे आठ प्रवचन-माता के नाम से विख्यात हैं। समिति का अर्थ है सम्यक् प्रवृत्ति, विवेकपूर्ण प्रवृत्ति । वे पाच
SR No.010225
Book TitleJain Dharm Jivan aur Jagat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanakshreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages192
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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